पृष्ठ:कंकाल.pdf/१२४

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पुरुषोत्तम की जय 1 –ी घ्यनि से वप्नु स्थान मुंज उठा। बहुत-से लोग नने गये ।। विजय नै हाप जोड़कर नहा-महाराज | मैं कुछ पूछना चाहता है। मैं इस समाज से उपेक्षिता--अज्ञातबुलशौलो घण्टी से ब्याह करना जाता है, इसमें आपकी क्या अनुमति है ? | मेरा हो एक ही आदर्श है। तुम्हें जानना चाहिए कि परस्पर प्रेम को विश्वास कर लेने पर यादनों के विरुद्ध रहते भी सुभद्रा और अर्जुन के परिणय को पुरुषोत्तम गै राहायता दी । मदि तुम दोनों में परस्पर प्रेग है, तो गगवान् को यादी देकर तुम परिणय के पवित्र बन्धन में बँध राख्ने हो । झुणशरण ने कहा। निजम बड़े उत्साह से घण्टी का हाथ पवई दैव-विग्रह | सामनै मामा, और वह कुछ बोलना ही चाहता था कि यमुना कर घड़ी हो गई। वह फहुने त-विजय बन्ना, पह ब्याह आप वैवल अहंकार से करने जा रहे हैं, आपका प्रेम भण्टी पर नहीं है। | बुद्धका पादरी हँसने लगा। उसने कहा-नौट जाओ बेटी ! विजय, भलो राय लोग चलें । | निजग ने हतबुद्धि के समान एक बार यमुना को देखा। घण्टी गी जा रही थी। विजय का गला पवडकर बैचै किसी ने घका दिया। वह सुरक्षा के पास लौट आया। ततिको घबराफर सबसे पहले ही बनी। सच धांगों पर भी बैठे । गोस्वामी के मुख पर स्मित-रेखा दालक उठी। यांकशि : ११५