पृष्ठ:कंकाल.pdf/१२९

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श्रीचन्द्र ने कहा-नहीं, तुम्हें अपने बंगले में उजेले से पहले ही पचना माहिए। मैं तुम्हें बहुत गुरक्षित रखना चाहता हूँ । | चन्दा ने इठलाते हुए कहा---मुझे इच बैंगले को बनावट बहुत सुन्दर लगती है, इसकी ऊँची कुरसी और पारों और बुना हुआ उपवन बहुत ही सुहावना श्रीचन्द्र ने कहा--पदा, तुमको भूल न जाना चाहिए कि संसार में पाप से सवनी देर नहीं, जितना जनरव है ! इसलिए तुम नला, मैं ही तुम्हारे बंगले पर आकर पाय पिऊँगा । अब इस बँगले में मुझे प्रेम नहीं रहा, क्योंकि इस दूसरे के हाथ में जाना निश्चित हैं। | चन्दा एनः बार घूमकर खड़ी हो गई। उसने कहा ऐसा कदापि नही होगा । अभी मेरे पास एक लाख रुपया है। मैं कम सूद पर तुम्हारी सम संपति अपने यहाँ रख लँगो । नोलो, फिर तो तुमको किसी दूसरे की बात न सुनन होगा ? | फिर हंसते हुए उसने कहा-थौर मेरा तगदिया तो इस शश्म में छूटने की नहीं ! | श्रीचन्द फी धन बढ़ गई । उसने वहीं प्रसन्नता से नन्दा है कई भ्यत निये और कहा-मेरी सम्पति ही नहीं, मुझे भी बन्धक एख लो प्यारी चन्दा ! पर अपनी दिनार मनागौ । लाली भी हम लोगों का रहस्म न' ने तो अछा, याकि, हुम लोग चाहे जैसे भी हैं, पर सन्ताने जो हुम लोगों की बुराइयों से अनभिज्ञ रहूँ । अन्यथा, उनके मन में बुराइयों के प्रति अपहेलना की पापा बन जाती है। और ये उन अपराधों को फिर अपराध नहीं समाते-जिन्हें है जानते हैं कि हमारे बड़े लोगों ने भी किया है ।। लाली जगने का तो नुन्न समय हो रहा है। अच्छा, यहीं नाम पीजिएग्य और अब प्रबन्ध भी आज ही ठीक हो जायगा ।। गाड़ी प्रस्तुत थी, चन्दा जकिर बैठ गई । थन्द्र ने एव दीर्घ निःस्वार्स होकर अपने हृदय को सङ परशु के दोनों से हुलझा दिया। १२० : प्राई बाम