पृष्ठ:कंकाल.pdf/१३४

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निरंजन शुन्दीपन में विजय की शोज में घूमने लगा । तर देकर अपने हरिहार के भण्डारी को रूपमे लेकर बुलाया और गली-गत्नी खोज की एम मच गई। मथुरा में द्वारिकाधीश के भन्दिर में कई दिन टोह लगाया। विथामघट पर ही देखते हुए कितनी संध्याएं बिताई, पर विजय का कुछ पता नही ।। एक दिन बृन्दाबन पाती हूक पर यह भण्डारी र बाथ टहल रहा था। अकस्मात् एक तांगा तेजी से निकले गया। निरंगन को शंका हुई; पर वह अभ सफ देये, तेव सक सो ताँगा सोप हो गया। हाँ, गुलाबी साड़ी की झलक आँखों में छा गई। | पूरा दिन गह भाग गर दुर्वासा के दर्शन को गया । वैचारी पूर्णिमा थी। यमुना से जुटने का मन नहीं करता था । निरंजन ने नाव वाले से कहा---किसी | अच्छी जगह ले पक्षी । मैं अब रात भर घूमना चाहता है। तुम भरपूर इनाम इंगा, चिन्ता मत करना, भला ।। उन दिनो कृष्णशरण वाही करी प्रसिद्धि प्राप्त कर पुकी । मनचले लोग बहुत उयर घूमने जाते थे। मांझी में देया कि अभी थोड़ी देर पहले ही एफ भाव उधर जा की थी, वह भी उधर घेने सगा । निरंजन को अभने पर क्रोध हो हा था, सोचने लगा-"आये थे हुरिमा को शौटन लगे कपास 1" | पूर्णिमा की पिछली रात थी। रात-भर छा जगा हुआ 'वन्द्रमा म हा या। निरंजन की झाँखें भी कम अलसाई पो; परन्तु आज नीद उपट गई थी। सैकड़ों कविताओं में चणित यमुना का पुतिन, यौवन-फान की स्मृति जगा देने के लिए कम न पा 1 किशोरी की प्रौढ प्रणय-नीला चौर अपनी सारी की स्थिति, निरंजन के सामने यो प्रतिद्वंद्वियों की भाँति तड़कर उसे अभिभूत बना रही यो । माझी मी ॐ रहा था। उसके डाँढे बहुत योरे-धीरे पानी में गिर रहे थे। धमुनी के जल में निस्तब्ध गति थी। निरंजन एक स्वप्नौफ में विनर रहा था। पदनी फौकी हो चल्ली। अभी तक मांगे जाने पानी नाम पर मर हात : १२५