पृष्ठ:कंकाल.pdf/१३६

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है और स्तियों पो भरना पड़ता है। अतः इधर-उधर देखने में भया । भरना है'--यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लौ यी व्यणिचार कहकर तिरस्कार से । अधमर्ग को सान्त्वना के लिए यह उत्तमर्म को शाबिक, मौखिक प्रलोभन मा तिरसार है। समदी ? घंटी ने पहा।। विश्व का भी उबई गया। उत्तने समझा कि मैं मिया न को अभी तक एमझता हुआ अपने मन को पोखा दे रहा है। यह हँसमुख घण्टी संसार के सब प्रश्नों को सहन किये बैठा है। प्रश्नो को गम्भीरता से बिगाने का मैं जितना दोग करता है, उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा है पह चुपचाप सोचने मया ।। घण्टी फिर कहने लगी-समझे विजय ! मैं तुम्हें प्यार करती हैं । तुम ब्याह करवेः यदि उराका प्रतिदान किया चाहते हो, तो भी मुले कौर जिन्ता नहीं । यह विचार तो मुझे नौ सताता ही नही । मुचे जो फरना है, वही नरसा है, कगी भी । प्रमोगै घूमूंगी, पिताओगे, पीऊँगी, दुलार परोग हँस हँगी, कराडगे रो पूँगी । स्त्री को इन सभी वस्तुओं की आवश्यकता है। मैं इन सथो को समभाव से ग्रहण करती है और शा । विशप का सिर घूमने लगा। वह चाहता था कि पट्टी अपनी बक्तृता जहाँ क संभन हो, शौन्न बन्द नार दे। उसने यहा—अब तो प्रभात होने में बिलान नही; मी कही किनारे उतरे और हाप-मुई धो लें। घण्टी चुप हो । माय तुट की और इसी । उसके पहले ही एक दूसरी मात्र भी तीर पर लग चुकौ की; परन्तु इ निरंजन की थी। गिरजन दूर था, उसने देवा--विजय ही तो है ! अच्छा दूर-दूर कर इसे देखना चाहिए, अभी शोन्नता से काम बिगड़ जामगा। विजर्म और धष्ट नाय से उतरे । प्रकाश हो चला था। रात थी उदासीभरी विदाई भोरा के आँसू बहाने लगी। वृष्णशरण की टेकरी के पास ही व उतारै मन घाट मा । यही बेवन एक स्त्री प्रातः स्नान के लिए नमी आई थी। घण्टौ गृक्ष भी शुरमुट में गई थी कि उके चिल्लाने का शब्द नुन पडा । विजय उधर दौड़ा; परन्तु प्रण्टी भागती हुई इधर ही आती दिखाई पड़ी । अब येसा हो चला या । बिशय गै देखा कि वही तग वाला नयाभ से पटना पाहुवा है। विप नै हटकर कहा–खड़ा रह इट! भवाय अपने पूरे सभी के भरोसे विजय पर टूट पड़ा । योगो ने गुरमगुत्या हो गया। विशय के दोनों पैर उठाबार यह पढ़कना चाहता था और विषय ने दाहिने बगण में उसका गला दबा तिया या, दोनो और से पूर्ण वत-प्रयोग हो रहा था कि विजय का पैर चढ़ आय कपास : १२४