आज तक जिस रूप में मैं उन्हें देखता था, वह एमाग धा; किन्तु इस प्रेम- पय फा सुधार करना चाहिए। इसके लिए प्रयत्न करने की आज्ञा दीजिए। | प्रयत्न ! निरगन तुम भूल गये । भगवान् की महिमा त्वय प्रचारित होगी। में , जो सुनना चाहता है उसे सुनाऊँगा 1 इससे अधिनः कुछ मारने का मेरा साहस नही। किन्तु मेरी एक प्रर्पन है । संमार वर्पर हैं, उसको चिल्लाकर सुनाना होगा; इसलिए भारतवर्ष में हुए उच्च प्राचीन महापर्न को लक्ष्म में रखकर भारत-संघ नाम से एक प्रभार-स्या बना दी जय ! संस्थाएँ विकृत हो जाती है। यक्तियों के स्वार्थ उसे कलुपित कर ४ हैं, दैघनिरंजन ! तुम नहीं देखते कि भारत-भर में साधु-संस्थाभी फी का... निरंजन ने श-भर में अपनी जीवन पठने पर योग किया । फिर बोझ पर उसने कहा—महामन् । फिर अपने इतने अनाथ जौ, बाजा और युद्ध का परियार मय बना लिया है ? निरंजन को और देखते हुए क्ष-भर चुप रहर गोस्वामी कृष्णशरण ने अपनी असायमानीं तो मैं इरी ने कहूँगा निरञ्जन | एक दिन मंगाय को प्रार्थना से अपने विचारों का उपोपित करने के लिए मैंने इस कल्याण की व्यवस्था की पौ। उसी दिन से भरी देकरी में भी होने सगी । जिन्हें आवश्यकता है, दुःख हैं, अभाव है, वे मेरे पास आने लगे । मैने किसी को बुलाया नही । अब पिसी को हुट्टा भी नहीं सकता। तब अप यह नहीं मानते कि संसार में मानसिक दुःख से पंडित प्राणियो यो इस मुंद्रेश से परित्रित करने की आवश्यकता है? है, किन्तु मैं आदम्र नहीं बाहर । व्यक्तिगत श्रद्धा से निखना शो र संगै, उतना है। पर्याप्त है। कि अम यह एक परिवार बन गया है, इसकी कोई निश्निप्त व्यवस्था करनी ही होगी। मैं इस झंझट से दूर रहना चाहता है। मगर को जाने दो। निरज़न में यहाँ का राय नमाचार लिखते हुए किशोरों को यह भी लिया भाअपने और इसके पाप-भिह्न बिजय का जीवन नहीं के बराबर हैं। हम दोनों को सय करना चाहिए और मेरी भी इच्छा है कि अब भगवद्भजन । भारत-सप के संघटन में लगे हैं। विजम को खोनार छरी और भी संकट में सुना होगा । तुम्हारे लिए भी सतोपको छोड़धार दूसरा योई उपाय नही । संत : १३१
पृष्ठ:कंकाल.pdf/१४०
दिखावट