पृष्ठ:कंकाल.pdf/१४४

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मैं भी मांगकर पाती थी, तब मेरा कोई असर नहीं था। लोग दिल्लग करतें और मैं हँसी, हुरहावर सती । पहले तो पैसे के लिए, फिर, पिर वसंत्रा लग गया--राने का आनन्द मिल गया । मुद्दा विश्वास हो गया कि इस विचित्र भूतल पर हम लोग केवल हैस व लहरों में हिलनेन्द्रोलने के लिए जा रहे हैं । आह । मैं दरिद्व पी, पर मैं का रोनी मूरतवाले गम्भीर विद्वान या गपयो के बोरों पर बैठे हुए गनभानेवाले गच्छरों को देखकर पृषा करती, या उनको अस्तित्व ही न स्वीकार करती, जो जी घोलकर हुशः न थे ! मैं पुन्दावन की गली पी ए हो पागल थी; पर उरा हँसी न रंग पलट दिमा; वहीं' हुसी अपना कुछ और उद्देश्य रचने सग। फिर विजय; धीरे-धीरे जैसे सावन की हरियाती पर प्रभात का वादल यनकर छा गया—में नाचने लग गपूर-सी ! और, पई यौवन का मेरा घरने लगा । भीतर-बाहर रग से छा गया । मेरा अपना कुछ न रहा । मेरा आहार, विचार, वैश और भूपा राय बदला, और बून्न बदला । यह वरात में बादल्ली की रगीन संप्या शो; परन्तु यमुना पर विजय पाना मायारण काम न आ । अभिघ था । मैंने सूचित शक्ति में विजय का छाती से दबा लिया था और यमुना,..यह तो स्वस राई छोडेर हुट गई थीं । पर में बनकर भी न बन मुक–नियति चारों ओर से दवा ली थी। और मैंने अपना कुछ न रखा था; जो कृE था, नवं दूसरी धातु का धाः मेरे पादान' में बुछ न त था। शो में चली; त्रायम,.,इस पर भी निशा ती हो -- यमुना रिसर्ती होगी ..दोनो मुझे गाली देती होंगी; अरे--अरे; मैं हैराने वाली सबको रुलाने लगी! में दो दिन धर्म से ल्युत हो गई–मर गई, घण्ट्री मर गई। ...पर, यह कौन चोच रही है ! हो, वह मरघट की ज्वाला धक क्ली है ।—ओं, ओं मेरा शव ! महू देबोविज्ञ प्रकी व गन्दे पर बैठा ! रौं रहा है और बाथम हुँच रही हैं। हाथ ! मेरा पर्व कुछ नहीं करता है रोता हैं, न हँसता है, तो में क्या हैं ! जीवित है । गारो ओर थे कोने नाच रहे हैं, औह 1 सिर में कौन धक्के मार रहा है ! मैं भी चू-ये जुड़े में है और मैं भौ | तो हूँ बहू, भालक है । अंटी अपना नया ईशमी सोया नोंचती हुई दाड़ पड़ी। अन्धकार में अन्न पड़ी । यापम इस समय इलय में था । मैजिस्ट्रेट की सिफारिशी चिट्ठी की इसे अपत अवश्यकता थी । पादरी जॉन सोच रहा या—अपनी भा[ध या पर कङ्ग से मंगा, उस पर झारी कैसा हो ।। इधर घन्टी--पागल घण्टी–अंधेरे में भाग रही थी। कैकोस : १३५