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अभ्यास होता है ? क्या वे मनुष्यों के समान ही देय आदि दुर्बलताओं से पीड़ित हैं।

रमणी चुपचाप समीप चली आई । साष्टांग प्रणाम किया । तपस्वी चुप था, वह क्रोध से भरा था; परन्तु न जाने क्यों उसे तिरस्कार करने का साहस न हुआ । उसने कहा-उठो, तुम यहाँ क्यों आई?

किशोरी ने कहा-महाराज, अपना स्वार्थ के आया—मैंने आज तक संतान का मुंह नहीं देखा। | निरंजन ने गम्भीर स्वर में पूछा--अभी तो तुम्हारी अवस्था अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं, फिर इतनी दूश्चिंता क्यों?

किशोरी के मुख पर सजा की लाली थी; वह अपनी वयस की नाप-तोल से संकुचित हो रही थी। परन्तु तपस्वी का विचलित हृदय इसे व्रीड़ा समझने लगा। वह जैसे लडखड़ाने लगा। सहसा सम्हल कर बोला-अच्छा। तुमने यहाँ आकर ठीक नहीं किया। जाओ मेरे मठ में जाना—अभी दो दिन ठहरकर । यह एकान्त योगियों को स्थाली है, यहां से चली जाओ ।—तपस्वी अपने भीतर किसी से लड़ रहा था।

किशोरी ने अपनी स्वाभाविक तृष्णा भरी आँखों से एक बार उसे सूखे यौवन का तीव्र आलोभ देखा; वह बराबर देख न सकी, छलछलाई आखें नीची हो गई उन्मत्त के समान निरंजन ने कहा-बस जाओ !

किशोरी लौटी और अपने नौकर के साथ, जो थोड़ी दूर ही पर खड़ा था, ‘हर की पैड़ी' की और चल पड़ी। चिन्ता और अभिलाषा से उसका हृदय नीचे ऊपर हो रहा था।

रात एक पहर गयी होगी, 'हर के पैड़ो' के पास ही एक घर की खुली खिड़की के पास किशोरी बैठी थी। श्रीचन्द्र को यहां आते ही तार मिला कि तुम तुरन्त चले आओ। व्यवसाय-वाणिज्य के काम अटपट होते हैं वह चला गया। किशोरी नौकर के साथ रह गई। नौकर विश्वासी और पुराना था। श्रीचन्द्र की लाडली स्त्री किशोरी मनस्विनी थी ही।

ठंह का झोंका खिड़की से आ रही थी; परन्तु अब किशोरी के मन में पड़ी उलझन थी-कभी वह सोचती, मैं क्यों यहाँ गई, क्यों न उन्हीं के संग चली गई। फिर मन में आता,रुपये-पैसे तो बहुत हैं, जब उन्हें भोगनेवाला ही कोई नहीं, फिर उसके लिए उद्योग न करना भी मुर्खता है। ज्योतिषी ने भी कह दिया हैं, संतान बड़े उयोग से होगी । फिर मैंने क्या बुरा किया ?

८:प्रसाद वाङ्मय