पृष्ठ:कंकाल.pdf/१५८

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आई ! हीं हुई एफ अंचल छोरो हाथ या सामने आषर पड़ी हो गई । उसको म । हैन रही थीं ! वह अपने होठों को बढ़े दबाव से रो रही | पौं । दे तो ज़ि इस वया हो गया है । यौली ही नहीं, मन मारे बैठी है। नही मया 1 मारा-पानी रख देती है। मैं तो इसमें हरही है ! और घुछ | नहीं करती। दिः इसको पसा हो गया है, पता नहीं तो सिर के बाल नोच डालेगी। मुन्दरों को विश्वास था कि मला कदापि ऐसा नहीं कर सपा । मह ताल नौटकर इसमें लगी और बोला-मैं समा गई ! उत्पण्ठिा से मना ने कहा--तो बतातीं वो नहीं ? नाङ्गे सरकार को बुला ताऊं, ये ही इस परम की बात जानते हैं । शग मल, में भी इसे दुधार परते हैं, पुचकारते हैं? मुझे तो विश्वास नही होता । तो मैं ही पलती हैं, तू इसे उठा है । गुल्दो ने महान सो के तारों से बना हूला पिंजरा पा लिया, और शव| नभ आरक्त पोलो पर की भर्म-सीकर पोती हुई, उसके पीछे-पीछे चलीं। पदन की कुंज गली परिमल में मस्त हो गई। फूलों ने भन्द-पान बरगे के लिए अधरो-री गरियो घीनी । मधुप नडाहाले । मयानिल मुचना देने के लिए आगे-आगे दौडून वगा। पौध ! सो भी अन का ! औछ । किंतना सुन्दर सर्प भीतर फुफकार रहा है । कोहरे का सीसफुल गांगुका फी एकावली विना अधुरा है, क्यों ? वह तो कंगाल थी । चङ्ग मै बौन है ? | फोई नही सरकार ! —कहते हुए सौदेव ने विचार में बाधा उपस्थित कर दी ! हाँ, सोमदेव में फुल घर रहा था। हु- लौंग वेदान्त की व्याख्या करते हुए आर से देखता बन जाते है और भीतर उसके वह् नोच-नोट बना करता है । जिसकी चीमा नहीं । वही तो सौमदेव ! कंगाल व सोने में नहाप दिया; पर उराक्य कोई सखारन पन्न न हुआ—मैं समझता हैं वह मुध न हो सकी। सोने की परिभाषा कदाचिद सुबके लिए भिन्न-भिन्न हो ! कदि वाहूने है-- राने की फिरणे सुलहनी है, राजनीति-विशारद---गृन्दर राज्य को, सुनना वाल : ११७