पृष्ठ:कंकाल.pdf/१६१

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किसे ? क्या मैं इन्हें घर ले जाऊँ ? नहीं, जिसका है उसे । पागल तो नही हो गई है—मिला हुआ भी कोई यो ही लौटा देता है। चुप रहो बाबा ! उसी समर मिरा ने भीतर आकर मह देखा। उसकी समक्ष पं कुछ न झापा । उत्तजित होकर उन्होंने कहा—रहमत ! क्या यह सब पर बांध से ज? का ढंग था । रहूमत' आंखें नीषी विये चला गया; पर मलना शमनन लाल हो गई। मिशा नै सम्झुलकर उससे मुा-यई राय क्या है मञ्चका ! | निस्विता । शबनम ने कहा--पन्न गृय भरी वस्तुएं हैं, मैंने कप बेत्त कर पायी है, या इन्हें घर न भेजें ! चोट खाकर मिरजा ने कहा-अब राम्हारा दूसरा पर कौन है, शबनम । मैं तुमने निकालू करूंगा। ओह ! तुम अपनी मूल्यवान वस्तुओं के साथ मुट्ठी मी सन्दूक में बन्द किया चालु हो ! तुम अपनी सम्पत्ति सुज्ञ सों, मैं अपने को सहेजकर देखें ! | मिरजा मर्माहत होकर चले गये । सादी खोती पहुने साग उठकर होम में देते हुए, रहमत से पाबना ने कहा-सुलो यात्रा । | माँ बेटी ! अब तो मुझसे यह न हो सकेगा, और तुमने भी कुछ न सीखा —क्या करोगी मनका ? नही वाव | शबनम कहो । चलो, जो सीखा है यह गाना तो मुझे भूलेगा नहीं, और भी शिक्षा देना । अब यहां एक पल नहीं कर सकती ! बुॐ ने दोघं निभास लेकर सारंगी उठायी, वह आगे-आगे च । उपवन में आकर पजनम रुक गई। मधुमारा भा, दिनी रात थी। वह निर्जनता सौरभ-व्याप्त हो रही थी । शबनम ने देखा, ऋतुरानी शिरिस के फूल की कोमी गुलिका री पिरा शुन्य में अलक्ष्य' चित्र बना 'रारी थी । बहु । * रह सकी, जैसे कि पक्के से बिट्टी के बाहर हो गई। द्वरा घटना को चारह भएरा बीत गये थे; हम अपनी मफ्नो दामन में बैठा हुआ हुनका पी रहा था । उसने अपने इकट्ठे किये हुए रूप से भर भी बोग्न बीघा घेत ले लिया था। गाँव में झनं यह एक इच्छा किसान था । म १५० : प्रसाद यामग्न