पृष्ठ:कंकाल.pdf/१७३

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बाबा बहुत विगई हैं—आज तीन दिन हुए, मुझसे बोलनै नहीं। नये ! तुमको स्मरण होगा कि मेरा पना-लिखना जानकर तुम्ही ने एक दिन वहा था कि तुम अनायास ही जंगल में शिक्षा को प्रचार कर किती हो-शूल तो नही गर्ने ? नही; मैंने अवश्य बहा था। सौ फिर मेरे विचार पर यावा इतनै दुःखी बग्नों है ? उन्होंने उसे अच्छा न समझा होगा । तवं मुझे जमा करना चाहिए? जिरो सुभ अच्छा समझो। नये । तुम बडे दुर हो–मेरे मन में एक प्राकांक्षा उत्पन्न करके अब उसका कोई उपाय नहीं बताते ! जो आकांक्षा उत्पन्न कर देता है, यह उचकी दूति भी र देता है ऐसा तो नही देखा गया ! तब भी तुम पा चाहती है ? मैं इस जंगलो जीवन से य गई है, मैं मुE और ही थाहती हूँ-- नयर है ? तुम्ही बता सकते हो। मैने जिसे जो बताया, उसे यह रामक्ष न सवा गाली ! -मुझसे न पूछो, मैं आपत्ति का मारा तुम सौगो की शरण में जा रहा हैं-कहते-कहते नये । सिर नीचा कर लिग । यह विचारों में व गया। गाला शुग की । गहता भानु जोर से भेष उग, दोनों ने पुमनार देखा कि वन उपचाप सा है ! जब नये उठकर खड़ा होने जगा, तो यह नौला गाना ! मैं दो बाते सुम्हारे हित की कहना चाहता है, और तुम भी सूनो नये । दोनों ने सिर नीचा कर लिया। मेरा भर समय हो भना। इतने दिनों तक मैंने तुम्हारी इच्छा में कोई बाधा नही दी, पो हो निः तुम्हारी बोई वास्तविक इच्छा ही नही हुई; पर अन्न तुम्हारा जोवन चिरपरिचित देश की सीमा पार गर रहा है। मैने जहाँ तक उचित समझा, तुमने अपने शासन में रक्खा, पर अब मैं यई चाहता हूँ कि तुम्हारा ग्य नियत कर दें और विपी चपयुक्त पान पी सैराठा में तुम्हें हो जाऊँ।--इतनी कर उसने एक भेदभरी दृष्टि नये * पर दी । गाला कनखियो । जती हुई चुप भी । बदन फिर कहने लगा मेरे पास इतनी सम्पत्ति है कि गप्तिा और जसा पति उगन भर मुख से रह सकते है–यदि इनकी संसार में सरत जीवन ता लेने से अधिक है। न हो । नगे ! मैं तुमने उपयुक्त समझता है---गा। के जीवन की धारा सुरतं पण से बहा ते चलने की क्षमहा तुम में है । तुम्हें यदि स्वीकार हो तो १६२ : मसदि वाङ्मय