पृष्ठ:कंकाल.pdf/१७६

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घदुर्थं खण्ड | बहू दरिदक्षा र समय के शार्हस्थ्य जोबन झी कटुता में दुलारा गया था। उसकी मां गहूती थी कि वह अपने हाथ दो रोटी कम लेने के योग्य बन जास्त्र, इसलिए वह बार-बार झिड़की मुना । जय क्रोध से उसके ससू निकलते उशीर जब उन्हें अधेरी से पोंट लेना चाहिए था, तब भी वे पे झपौलो प्रर थाप-लीअप गूधकर एक मिलन-निट्स छोड़े जाते थे। अभी घट्ट पढ़ने के लिए पिटता, कमी न्हाम सखने के लिए इटा नाता: पही यो उराकी दिनचर्या 1 कर वह निचिठे स्वभाव को क्यों न हो पाता । वह क्रोधी था, तो भी उसके मन में स्नेह था, प्रेम या और भी नैसग आनन्द - शैशव को उससि; हैं लेने पर भी जी घोप्तकर हँस लेना पड़ने पर रूसने लैगना ! वस्ती असने के लिए सदैव प्रस्तुत हप्ता । पुस्तके गिरने के लिए निकल पडती थी। दोपी असावधानी से टेड़ी और कुरते में बटन खुल्ला हुआ । अखि | में गुरुवाते हुए आंसू और घर पर मुस्कराहट । । उसमें गाड़ी चल रही थी। वह एक पहिया तुला रहा था। उसे चलाकर | जैक्षा से वो चट्टा–छुटी सामी , गाड़ी जाती है। सामने से आते ई मुवती' पगी न इस' गाणी मी चूठा लिया । बतष के निय विनय में बाधा पड़ी। वई सहम इस पगलों की भोर देखने सगा । निष्फल क्रीझ का परिणाम होता है से देना। बालके रोने का । भूपम्रिपल ने भी पास न था, निफा' 'अ'-कक्षा में यह पढ़ता आ कोई सापक न पहुँच सकी। पगची ने उसे रोते देखा, वह जैसे अपनी भुज्ञ समझ गई ! बोली7 ! भक्तों ने खेचा ; -,--ॐ भी रोने लगेगी, ओं -अ ! चानुनः हँस पड़ा। वह उसे गद में लेकर निदइने लगी । अज्ञक वह फिर घबराया। इने रोने के लिए मुंह बनामी हा था कि पुगनी ने उसे गोद से उतार दिया और बह वड़बड़ागे लग्राम, कृष्ण और बुद्ध समी तो पृथ्वी पर लेटते थे ! कंकाल : १६५