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अतीत की स्मृति, वर्तमान की कामनाएँ, किशोरी को भुलावा देने लगी। माथे से पसीना बहने लगा, र्दुबल हृदय, किशोरी को चक्कर आने लगा। उसने ब्रह्मचारी के चौथे वृक्ष पर अपना सिर टेक दिया।

कई महीने बीत गये। बलदाऊ ने स्वामी को पत्र लिखा कि-आप आइए, बिना आपके आये बहूरानी नहीं जाती अगर मैं अब यहाँ एक घडी भी रहना अच्छा नहीं समझता।

श्रीचन्द्र आये। हठीली किशोरी ने बड़ा रूप दिखलाया। फिर मान-मानव हुआ। देवनिरंजन को समझा-बुझा कर किशोरी फिर आने की प्रतिज्ञा करके पति के साथ चली गयी। किशोरी का मनोरथ पूर्ण हुआ।

रामा वहाँ रह गयी।हरद्वार जैसे पुण्यतीर्थ में क्या विधवा को स्थान और आश्रम की कमी थी!

पन्द्रह बरस बाद

काशी में ग्रहण था। रात में घाटों पर नहाने का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध था। चन्द्र-ग्रहण हो गया। घाट पर बड़ी भीड़ थी। आकाश में एक गहरी नीलिमा फैली। नक्षत्र में चौगुनी चमक थी; पर खगोल में कुछ प्रसन्नता न थी। देखते-देखते एक अच्छे चित्र के समान पूर्णमा का चन्द्रमा आकाश-पट पर से धो दिया गया।धार्मिक जनता में कोलाहल मच गया। लोग नहाने, गिरने तथा भूलने भी लगे। कितनों का साथ छूट गया।

विधवा रामा अब सधवि होकर अपनी कन्या तारा के साथ भण्डारीजी के साथ आयी थी। भीड़ के एक ही धक्के में तारा अपनी माता तथा साथियों में अलग हो गई। यूथ से बिछड़ी हुई हरिनी के समान बड़ी-बड़ी आँखों से वह इधर-उधर देग रही थी। कलेजा धक-धक करता था,आँखे छलछला रही थी, और उसकी पुकार उस महा कोलाहल में विलीन हुई जाती थी। तिरा अधीर हो गई, अब फूट-फूट कर रोने लगी। एक अधेड़ स्त्री पास में खड़ी हुई तारा को ध्यान से देख रही थीं। उसने पास आकर पूछा-बेटी,तुम किसको खोज रही हो?

तारा का गला रुँँध गया, वह उत्तर न दे सकी।

तारा सुन्दरी थी। होनहार सौंदर्य उसके प्रत्येक अंग में छिपा था। वह युवती हो चली थी परन्तु अनाघ्रात कुसुम के रुप की पंखुरियाँ विकसी न थी। अधेड़ स्त्री स्नेह से उसे छाती से लगा लीया, और कहा–मैं अभी तेरी माँ के

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