पृष्ठ:कंकाल.pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

घर श्रीचन्द्र का भोजन में मेले १ गश पर धौर मंत्री भी उनकी नोई अनाने का पगि कसी भी । वह इार में अयोध्या मत्रों आई थी, क्योकि देह उराको मन में सगा। | नानी की यह कम पास भूल न होणे; अब यह दूरद्वार में हार के माय बढी , परन्तु तव में अब अन्तर मा । मानव मनोवृत्तिमा प्रायः अपने लिए कि केन्द्र बना दिया करती हैं, जिसके चारो ओर बहू ग और उत्साह से नानती रहती हैं। चाची तारा के उस गुझे वो -जिसे मह अस्पताल में छोड़कर दो अई थी.-अपना । मुत्र राम लग थी। मोइन पालने के लिए? उमगे अधिकारियों से मांग सिया मा ।। | पगन्नौ और हज शि पाट पर बैठी थी; पहा एका अन्धा भिखारी बठिया नवी हुआ, उन आगों वैः समीप भाया । उगने कहा--‘में दो बाबा ! ! जन्म में कितने अपराय किये हैं- अगवान् । अभी पौत भी नहीं आती 1 'दार्थ राम उहो । एक गार उरो ध्यान से देने नौ । ही गी ने कहा --अरे, तुम मथुरा से वहाँ भी पहुँचे । । | तो में शुमा हैं वैटी ! अपना प्रायश्चित करने के लिए, दुरारा जन्म बनाने के लिए 1 इननो हो । काशी हैं--भारी ३ कहा। गली उत्तेजित हैं उठी । गभी उसकै गतिप्यः यी र्पलता गई नौ । उसने समीप जातर जैसे अकझोर कर पूछा-- गोविन्दी वहिन भी पानी हुई पैटो को तुम भूत बाले ! यडित, मैं ही हैं। तुम ताजौ मेरी माँ को ? अरे पृगित नौ अन् । भेरी माता से मुझे नैया हयारे । तू किस निष्ठुर है ! मिा कर चैट ! समा भे भगवान् की शक्ति है, उनकी अनुकम्पा है। मैंने अपराध किया था, चत्रों का तो फल भोग रहा है । यदि तू सचमुच रही गरिधी मन की पाती हुई लड़की है, तो तू भरा है -••अपने बया ती धा हैं मुझे अत हुभा देकर प्रश्न हो 'छा ! बेटी, हरद्वार तक लो तरी माँ को पता , भर में यह दिन से नहीं चढ़ानता कि यह अब पह है ! नन्दो के हो ?-- यह बताने में अय अन्ध; राग असमर्थ हैं बेटी ! | चाभी ने उठकर सहसा उस अन्ने ना हाथ पकडकर बहु-मित्र ! रामदेव ने एक भार अपनी अन्धी अधिो में देखने को भरपूर ला को, फिर दिन हो । यहातै । यौनानन्दी का-सा र मुराई पहता है । नन्दो, तुम्ही हो १ गोल ! हैरद्वार से तुम मही र गई हो ? हे राम ! श्रज जुर्गम भरा अपराध अमर जिसी,नन्दो ! अहो तुम्हारी बड़ी है। मध्य प्रो फूटी पों में आगू पह हे में ! होलि : १६६