पृष्ठ:कंकाल.pdf/१८७

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| एक बार पगली ने नन्दो चाची में और देखा और नन्दो में गली की ओर -एक का आपण तौर हुart, दोनों गले से मिलकर रोने सगी । मह घटना दूर पर हो रही थी । किशोरी चौर थचन्द्र का उससे कुछ सम्बन्ध में या । अकस्मात् अन्धा रामदेव उठा और चिल्लाकर कहने लगा---पतितपावन को जय हो ! भगवान् मुझे शरण में लो !..--जेने तरफ उसे सब लोग देखे, तत्र तक बहु सरयू की प्रखर धारा में बता हुवा–फिर इयता हुला, दिखाई पड़ा । पाद पर हुलचल मच गई । किशोरी वा व्यस्त हो गई। श्रीचन्द्र भी इसे जाकस्मगः पटना में नवित-सी हो रहा था। अब यह एक प्रकार से निश्चित हो गया कि श्रीनन्द्र, मोहन को पानेगे, और वे जरी दत्त स्रा में भी ग्रहण कर सकते हैं। चाची को राँतोप हो गया था, वह मौहम के धनी होने की कल्पना से मुखी से राशीं । सदरा और भी एक कारण शापगली का मित्र ज्ञाना। वह भानस्मिक चिंतन उन लोगों में लिए अत्यन्त हर्ष वा विपर्म धा। किन्तु पगती अंय तक पहचानौ न जा सको यो, क्योंकि वह क्रींगारी की अवस्था में बराबर चाय के यर गर ही रही । पन्द्रे स नाही को उमकी सेवा के लिए गये दिसते । यह घोरे-धीरे स्वस्थ हो गती, परन्तु यह किशोरी के पास न जाती। किशोरी को केवल इतनी गालूम था कि नन्द को पगली लड़की मिल गई है। एक दिन याद् निश्चय है कि अब सुत्र लोग फाशी चर्ने; पर पगली अशी जाने के दिए सहमत न थी। मोहून मीचन्द्र के माँ रहता था । पगली भी किशोरी का सामना करना नहीं चाहती मी; पर उपाय वा था ! उभे इन लोगों ने साथ जाना हो गया। उसके पास फैवन एक अस्त्र बगर गा, यह गा पट ! बल्ल उसी की आड़ में काशी आई । किगीरी के सामने भी हाय। चूंघट निजाते रहतौं । किशोरी नन्दो ने चिढ़ने में हर से सम पुछ न बोलती । मोहन को दत्तक देने का कामय रामीण मा, वह तब वर नाची गो निद्राना गी न गाती, यद्यपि पगली ना पट से बहुत प्रप्तता पा । विशोरी को विजय की स्मृति प्राक, का देती है । एकान्त में बहु रोठं रहता है। उस महा तो पारी कमाई, जीवन भर के गाप-पुष्प का राञ्चित धन विजय ! आहू, मीता का इदय रोने अगता ।

ानी आने पर एक दिन पविही मै छ मन्त्रों में अक्टं यानन्द्र को औदन मा पिता बना दिया । मन्दी शादी को अपनी पैटी मित भुकी है,

१० : प्रसार वाड्मये