पृष्ठ:कंकाल.pdf/२०४

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कई दिन हो गये थे । मंगत नहीं हो। भले गीता का उरा पाठशना कर प्रबन्ध कर रही थी। उसका नदीने वृत्ताह उसे नित्य ब्रश ६ रहा गा; पर उग भी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि उसने कोई वस्तु खो दी है। पर एक पंडितजी भी इन पात्रता में पढ़ाने लगे थे । उनको गांव दूर था; अतः गारा में महा--. पण्डितजी, आप भी यहां रहा करे तो अधिक सुविधा हो । रात को छात्रों के कष्ट प्रमादि का समुचित प्रदा भी कर दिया जाता और भूमापन अतना न अग्रता । पण्डितजी नाचि बुद्धि के एक अर्पिद व्यक्ति थे। उन्होंने रवीकार कर त्रिपा । एक दिन में बैठे हुए रामायण की वयो गाना को मुना रहे थे, गाला ध्यान में मुन रही थी । राम-चैनवास का प्रसंग था। तब अधिक हो गई यो, पण्डितजी न कथा बन्द ? दी। सद छात्रों ने पूरी की दाई पर और फैलाये । पण्डितजी ने भी नम्वन सोध्रा वित्या ।। | आज गाला हा भस्रो में नीद में थी। यह चुपचाप नै विन-बिकम्पिरा अशा ही तरह गभी-कभी विचार म म शरतो, किनकि बार अपनी विचार परम्परा मी निल नदियों को मन्हासने सगसी । उसबै सामने आ रह-रह कर बदन का चित्र प्रस्फुटित हो उठता । यह शोचनी-पिता की अशा मानकर 'म भनषा हुए और मैन पिता को करा संवा वै ? उलटा इनवैः पूद्ध जीवन में कठौर आपात पहुँचाया ! और यह मंगत : किस मात्रा में पड़ी है ! बाल पते हैं, मैं पुण्य कर रही हैं, कर्तव्य कर रही हैं, परन्तु पया यह है ? मैं एक दुरन्त दस्यु और पवन न याति का हिन्दू समाज मुझे फ्राि दृष्टि में देगा ? ओह, मुके इसकी क्या भिन्ता ! समाज से मेरा क्या सम्यग्घ ! फिर भी मु चिन्ता गरनी ही पडेगी...असो ? इसका कोई इष्ट इतर नहीं दे सकती; पर मह मंगल भी एव तिलाप, , ,आहा, बेचारा जितना रोकिारी है, तिय र फी न पर नाला कोई नही । न पाने का बुध, न अपने शरीर कौ । गुप पा है— 7 भूल गया है । और मैं भी फै। हैं:-पिताजी को गिनी पौड़ा ने दो, मैं ममसते होगे ! ६ जानती है, जॉई में भी फर मेरे पिता अपने दृग में भी रिमा गरि : १८५