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मंगल-वीरेन्द्र, ऐसा अनुरोध न करो। वीरेन्द्र—यह मेरा हठ है। और तुम जानते हो कि मेरा कोई भी विनोद तुम्हारे बिना असम्भव है,निस्सार हैं। देखो, तुमसे स्पष्ट कहता हूँ। उधर देखो--वह एक बाल वैश्या है,मैं उसके पास जाकर एक बार केवल नयनामिराम रूप देखना चाहता है।इससे विशेष कुछ नही।

मंगल---यह कैसा कुतूहल!-छिः !

वीरेन्द्र—तुम्हे मेरी सौगंध; पांच मिनट से अधिक नहीं लगेगा,हम लौट आवेंगे। चलो, तुम्हे अवश्य चलना होगा। मंगल,क्या तुम जानते हो, मैं तुम्हे क्यों ले चल रहा हूँ?

मंगल-क्यों?

वीरेन्द्र–जिसमें तुम्हारे भय से में विचलित न हो सकूँ!मैं उसे देखूँगा अवश्य; परन्तु आगे के डर से बचाने वाला साथ रहना चाहिए।मित्र,तुमको मेरी रक्षा के लिए साथ चलना ही चाहिए।

मंगल ने कुछ सोचकर कहा-चलो। परन्तु क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गई थी।

वह वीरेन्द्र के साथ चल पड़ा। सीढ़ियों से ऊपर कमरे में दोनों जा पहुँचे। एक पोड़शी युवती सजे हुए कमरे में बैठी थी।पहाड़ी रूखा सौंदर्य उसक गेहुँए रंग में ओत-प्रोत हैं। सब भरे हुए अंगो में रक्त का वैगवान संचार कहता है कि इसका तारुण्य इससे कभी न छूटेगा।बीच से मिली हुई घनी भौहों के नीचे न जाने कितने अधंकार खेल रहा था। सहज नुकीली नाक उसकी आकृति की स्वतन्त्र सत्ता बनाये थी। नीचे सिर किये हुए उसने जब इन लोगों को देखा,तब उस समय उसकी बड़ी-बड़ी आंखों के कोन और भी खिंचे हुए जान पड़े।घने काले बालों के गुच्छे दोनों कानों के पास कंधो पर लटक रहे थे। बायें कपोल पर एक तिल उसके सरल सौंदर्य को बाँँका बनाने के लिए पर्याप्त था। शिक्षा के अनुसार उसने सलाम किया; परन्तु यह खुल गया कि अन्यमनस्क रहना उसकी स्वाभाविकता थी।

मंगलदेव ने देखा कि यह तो वेश्या का-सा रूप नहीं है।

वीरेन्द्र ने पूछा-आपका नाम?

उसके 'गुलेनार' कहने में कोई बनावट न थी।

सहसा मंगल चौक उठा,उसने पूछा-क्या हमने तुमको कहीं ओर भी देखा हैं?

यह अनहोनी बात नहीं है।

१४:प्रसाद वाङ्मय