पृष्ठ:कंकाल.pdf/२१५

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मंगलदेन के पास आने, तब गाला वैी आली क्षेत्र रही थी। उन्हें देखकर एंकोच से उठ खड़ी हुई। गोस्वामीजी ने कहा सेना सब से कठिन अन्न हैं देवि ! तुम अपनी घाम चारो । हो मंगल ! तुम अब अच्छे हो न ! कम्पित कंठ से मंगल ने थाहा--हो, गुरुदेव ! । अत तुम्हारा अधुदय-काल हैं, घबराना गत ! कहकर गोस्वामी श्री गये।। दीपक जल गया। आज अभी तक सरला नही आई। गाना को बैठे हुए बहुत विलम्ब हुआ । मंगल ने फहा-डा0 गाला, संध्या हुई; हाय-मूह तो स्रो तो, तुम्हारे इस अथक परिश्रम से मैं कैसे उयार पाऊंगा। गाला जति हुई । तिने सम्भ्रान्त मनुष्य और स्मिों के बीच अकर कानन-वासिनी ने नशा सीख ली थी। वह अपने स्त्रीत्व का अनुभव कर रही थी । उसके मुख पर विजय की मुस्कुराहट थी । उसने कहा—अभी माँ जी नहीं। माई, उन्हें सुना जाऊँ ! –जन्हूकर रारला को खोजने के पिए बह चली । सरला मौलसिरी के नीचे वैठी सोच रही थी—जिन्हें लोग भगवान कहीं हैं, उन्हें भी माता की गोद से नियमित होना पड़ा पा । दशरथ ने तो अपनी अपराध रामकर प्राण-याग दिया; परन्तु कौशष्या कठोर होकर जीती -- नौती रही श्रीराम का गुण देखने के लिए । कथा मेरा भी दिया नीटेगा ?–बया मैं इसी में अब तक प्राण ६ ६ सी ! गाला ने सहशा आकर कहा-–नलिये ! दोनों मंगल की चोरी की और भी । मंगल वैः गले के नीचे वह यंत्र गट रहा था। उसने तकिमी में उसे चर्कर बाहर किया । मंगर ने देखा कि वह यंत्र उसी का पुराना यंत्र है ! म आभने में पसीने-पीने हो गया । दीम के आलोक में उसे बह देख ही रहा हो कि सरला मौतर आई । सरजी को बिना दे ही अपने कुतुहल में इने प्रश्न रिया-- मैरी यंत्र इतने दिगों पर कौन मारे पहनी गयी है, अपचर्य है ।। रारला ने जड़ा से पूछा-तुम्हारा यन्त्र जैसा बेटा ! यद् तो मैं एन साधु मंगल हैं राल हो । उगको योर देखकर कहा-मां को, मह मेरा ही मन्त्र है, मैं । नरार दाम्मान में पहुना मरता था । जग महू पी गया, रानी गै दुःख पा रहा है। आषर्य है, इतने दिनों पर यह नै पो मिल गया | | सरला में शैर्य का वध इट पड़ा। नृानं यन्त्र बने हा । नेपर देखा १८५ : पद यामम