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कई महीने हुए, काशी में ग्रहण की रात को जब मैं स्वयं-सेवक का काम कर रहा था, मुझे स्मरण होता है,जैसे तुम्हें देखा हो; परन्तु तुम तो मुसलमानी हो।

हो सकता है कि आपने मुझे देखा हो;परन्तु उस बात को जाने दीजिए, अभी अम्मा में रहीं हैं।

मंगलदेव कुछ कहना ही चाहता था कि 'अम्मा' आ गई। उस विलासजीर्ण दुष्ट मुखाकृति देखते ही घृणा होती थी।

अम्मी ने कहा--आइये बाबु साहब, कहिये क्या हुक्म है?

कुछ नही, गुलेनार को देखने के लिए चला आया था--कहकर वीरेन्द्र मुस्करा दिया। अपकी लौंंडी है, अभी तो तालीम भी अच्छी तरह नहीं लेती,क्या कहूँँ बाबू साहब,बड़ी बोदी है। इसकी किसी बात पर ध्यान न दीजियेगा।--अम्मा ने कहा!

नहीं-नहीं, इसकी चिन्ता न कीजिये। हम लोग तो परदेशी है। यहाँ घूम रहे थे,तब तक इनकी मनमोहिनी छवि दिखाई पड़ी; चले आये।--वीरेन्द्र ने कहा।

अम्मा ने भीतर की ओर देखकर पुकारते हुए कहा—अरे इलायची ले आ क्या कर रहा है?

अभी आया। कहता हुआ एक मुसलमान युवक चाँदी की थाली में पान-लायची ले आया। वीरेन्द्र ने इलायची ले ली और उसमे दो रुपये रख दिये। फिर मंगलदेव की ओर देखकर कहा-चलो भाई, गाड़ी का भी समम देखना होगा, फिर कभी आया जायगा।प्रतिज्ञा भी पाँच मिनट की है।

अभी बैठिए भी,क्या आये क्या चले-फिर सक्रोध गुलेनार को देखती हुई अम्मा कहने लगी--क्या कोई बैठे और क्यों आये।तुम्हें तो कुछ बोलना ही नहीं है और न कुछ हँसी-खुशी की बाते ही करनी है,कोई क्यो ठहरे?–अम्मा की त्यौरियाँ बहुत ही चढ़ गई थी। गुलेनार सिर झुकाये चुप थी।

मंगलदेव जो अब तक चुप था,बोला—मालूम होता है,आप दोनों में बनती बहुत कम है; इसका क्या कारण है?

गुलेनार कुछ बोला ही चाहता थी कि अम्मा बीच ही में बोल उठी-अपने-अपने भाग्य होते हैं बाबू साहब, एक ही बेटी, इतने दुलार से पाला-पोसा, फिर भी न जाने क्यों रुठी ही रहती है—कहती हुई बुड्ढी के दौ बूंद आँसू भी निकल पड़े।गुलेनार की वाक्-शक्ति जैसे बन्दी होकर तड़फड़ा रही थी। मंगलदेव ने

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