पृष्ठ:कंकाल.pdf/२२१

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निपत दिन आ गए, आज उत्सव का बिराट् अपोजन है। संघ के प्रांगण में चिंतन तना है। चारों ओर प्रकाश है। बहुत से दर्शकों की भीड़ है। गोस्वामीजी, निरंजन और मंगलदेव संथ को प्रतिमा के सामने ठे हैं। एक ओर घण्टी, लतिका, गाला मोर सरसी भी बैठी है। गोत्यागी ने शन्ति वाणी में आज के छत्सव गत वरेण्यं समझाया और कहा--भारत-संघ के संगठन परे बाप लोग थनिरजगजी का माख्या दत्तनित होकर सुने । निरंशन की व्याख्यान आरम्भ हुआ| प्रत्ययः समय में सम्पति-अधिकार और विद्या ने भिन्न-भिन्न देशो में जाति त और ऊँच-नीर की सुप्टि नौ । जव म सग इसे ईषनरत विभाग सैमझन सगरौ है, तब यह मुन जाते है कि इसमे ईश्वर का उतना सम्बन्घ्र नहीं, जितना उराको विभूतिथी का। कुछ दिनों तक उन विभूतिमो का अधिकारी भने हुने पर मनुष्य के संझार मी वैसे ही बन जाते हैं, वह प्रमत्त हो जाता है। प्रशिक ६वराय निमम, विभूतियों का दुरुपयोग देखकर विचारा बी चेष्टा करता है, यह कहलाती है उन्नन्ति । सस एमय केन्द्रीभूत विभूतियां, भार्थना के यपी जो वोड़कर रामस्त भूत हित के लिए बिखेरना चाहती है। वह समा भगवान् फो क्रीडा है । भारतवर्ग आज वर्षों और शासियों के वन्धन में जकड़कर हष्ट पा रहा है और दूसरो की फट ६ रहा है। दद्यपि अन्य देशों में भी इस प्रकार के समूह बन गये है; परन्तु यही इसकी गौण रूप हैं। गहू महूत्र या संस्कार अधिक दिनो नृक प्रमुत्यै भोगकर स्रोखला हो मा है। दूसरो को चन्नति में उसे टाई होने जगई है। समाज अपना महत्व धारण करने की क्षमता तो वो चुका है। गरन्तु यतिमा को उन्नति का दक्ष बनकर भुक रूग के विरोध करने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धूछी महत्ता गर इतराता हुआ दूसरे को भी अपने से छोटा--रामा है, जिससे सामाजिक विषमता नन पिगय प्रमाण फैन हा २०२ : प्रमाद चाइमष