पृष्ठ:कंकाल.pdf/२२६

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किशोरी सन्तुष्ट न हो सकी। कृछ दिनों के लिए नए विलय' को अवश्य भूल गई थी; पर मोहून को दत्तक ले लेने से इसको एकदम भूल जाना असम्भद्र था । हो, उसकी स्मृति और भी उज्ज्वल हो चली। घर के एक-एक कोने उसकी कुतिया से अंकित थे। उन राय ने मिल कर किशोरी की हँसी उडाना आरम्भ किया। एकान्त में विजय का नाम लेकर वह रो जती । उस समय उसके विनर्ण य को देवकर मोइन । ममभीत हो जाता । धीरे-धीरे मोशन के प्यार की माया अपना हाथ किशोरी की और से खींचने लगी। किशोरी फटका उठी, पर जपाय क्या था, नित्य मनोबेदना से पीडित होकर उसने रोग का अभय लिया । औषधि होती थी रोग च; पर मन तो वैसा ही अस्वस्थ अ । ज्वर में इमकै जर्जर शरीर में देरी काल दिया | बिज्ञम य चसनै भूलने की चैष्टा फी शौ । किसी सीमा तक वह मफल भो हुई; पर वह धौखा अधिक दिन तक नहीं चल सका। मनुष्य दूगरे को धोखा दे सकता है, क्योकि उरारो सम्बन्ध कुछ ही समय के लिए होता है; पर अपने सै, नि सहचर है, जो घर का सर कौन जानता है, केब सक हिोगा । किशोरी चि-गिर्ग हुई। एक दिन उसे एक पत्र मिला । वट्ट बाट पर पड़ी हुई अपने घ्षे हाथों से इसे खोलवर पद्धने लगी "किशोरी, संसार, इतना कठोर है कि वह क्षमा करना नहीं जानता और उसका सबसे लहा दद हैं-'आम दर्शन !' अपनी दुर्बलता, जब अपराध की स्मृति बनकर डंक मारती है, तब यह कितना अपीडनमय होता है ! उसे तुम्हें क्या रामक्षा मेरा अनुमान है कि तुम भी उसे भागकर जान सकी हो । मनुष्य के पारा तुकों के रामर्थन का अस्त्र है; पर कठोर सत्य अन्नग वडा चवका विद्वत्तापूर्ण मुर्शता पर मुस्कुरा देता है । यह् हँसी-शुल-सी भयानक, ज्वाला से भी अधिक झुलानेवाली होती है। कंफर : २५