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कर मंगल स्वयं लखनऊ रह गया। कैंनिग कालेज के छात्रों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मंगल यहीं पढेगा। उसके लिए स्थान का भी प्रबन्ध हो गया। मंगल वहीं रहने लगा।

दो दिन बाद मंगल अमीनाबाद की ओर गया। वह पार्क की हरियाली में घुम रहा था कि उसे अम्मा दिखलाई पड़ी और वहीं पहले बोली--बाबू साहब,आप तो फिर नही आये।

मंगल दुविधा में पड़ गया। उसकी इच्छा हुई किं कुछ उत्तर न दे। फिर सोचा--अरे मंगल, तू तो इसीलिए यहाँ रह गया है ! उसने कहा--हाँ-हाँ,कुछ काम में फँस गया था। आज मैं अवश्य आता; पर क्या करूं, मेरे एक मित्र साथ में हैं। वह मेरा आना-जाना नहीं जानते। यदि वे चले गये, तो आज ही आऊँगा,नहीं तो फिर किसी दिन।

नही नहीं,आपको गुलेनार की कसम, चलिए वह तो उसी दिन से बड़ी उदास रहती हैं।

अच्छा देखो, वे चले जाये तो आता है।

आप मेरे साथ चलिए, फिर जब आइएगा,तो उनसे कह दीजिएगा--मैं तो तुम्हीं को ढूंढता रहा, इसीलिए इतनी देर हुई, और तब तक तो दो बातें करके चले आयेंगे । कर्तव्यनिष्ठ मंगल ने विचार किया--ठीक तो हैं। उसने कहा--अच्छी बात है।

मंगल गुलेनार की अम्मा के पीछे-पीछे चला।

गुलेनार बैठी हुईं पान लगा रही थी। मंगलदेव को देखते हो मुस्कराई; पर जब उसके पीछे अम्मा की मूर्ति दिखलाई पड़ी,वह जैसे भयभीत हो गई।अम्मा ने कहा बाबू साहब बहुत कहने-सुनने से आये हैं, इनसे बातें करो। मैं अभी मीर साहब से मिलकर आती हूँ, देखूँ क्यों बुलाया है।

गुलेनार ने कहा कब आओगी?

आध घण्टे में-कहती हुई अम्मा सीढ़ियाँ उतरने लगीं।

गुलेनार ने सिर नीचे किये हुए पूछा-आपके लिए तो पान बाजार से मंगवाना होगा न?

मंगल ने कहा-उसनी आवश्यकता नहीं,मैं तो केवल अपना कुतूहल मिटाने आया हूँ--क्या सचमुच तुम वही हो,जिसे मैंने ग्रहण की रात काशी में देखा था?

कंकाल:१७