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—तारा ने जल दिया, मंगल ने यात्री का मुँह धुलाया। वह आँखों को जल से ठंडक पहुँचाते हुए मंगल के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ही चाहता था कि तारा और उसकी आँखें मिल गईं। तारा पैर पकड़कर रोने लगी। यात्री ने निर्दयता से झिटकार दिया। मंगल अवाक् था।

बाबूजी, मेरा क्या अपराध? मैं तो आप ही लोगों को खोज रही थी।

अभागिनी! खोज रही थी मुझे या किसी और को—

किसको बाबूजी? बिलखते हुए तारा ने कहा।

जो पास बैठा है। क्या मुझे खोजना चाहती, तो एक पोस्टकार्ड न डाल देती? कलंकिनी! दुष्टा! मुझे जल पिला दिया, प्रायश्चित करना पड़ेगा।

अब मंगल की समझ में आया कि यह यात्री तारा का पिता है; परन्तु उसे विश्वास न हुआ कि यही तारा का पिता है। क्या पिता भी इतना निर्दय हो सकता है? उसे अपने ऊपर किये गये व्यंग का भी बड़ा दु:ख हुआ, परन्तु क्या करे, इस कठोर अपमान को तारा का भविष्य सोचकर वह पी गया। उसने धीरे-से सिसकती हुई तारा से पूछा—क्या यही तुम्हारे पिता हैं?

हाँ, परन्तु मैं अब क्या करूँ। बाबूजी, मेरी माँ होती, तो इतनी कठोरता न करती। मैं उन्हीं की गोद मैं जाऊँगी।—तारा फूट-फूट कर रो रही थी।

तेरी नीचता से दुखी होकर महीनों हुआ, वह मर गई, तू न मरी—कालिख पोतने के लिए जीती रही?—यात्री ने कहा।

मंगल से न रहा गया, उसने कहा—महाशय, आपका क्रोध व्यर्थ है। यह स्त्री कुचक्रियों के फेर में पड़ गई थी; परन्तु इसकी पवित्रता में कोई अन्तर नहीं पड़ा, बड़ी कठिनता से इसका उद्धार करके मैं इसे आप ही के पास पहुंचाने के लिए जाता था। भाग्य से आप यहीं मिल गये।

भाग्य नहीं, दुर्भाग्य से!—घृणा और क्रोध से यात्री के मुँह का रंग बदल हा था।

तब यह किसकी शरण में जाएगी? अभागिनी की कौन रक्षा करेगा? मैं आपको प्रमाण दूँगा कि तारा निरपराधिनी है। आप इसे—बीच ही में यात्री ने रोककर कहा—मूर्ख युवक! ऐसी स्त्रैरिणी को कौन गृहस्थ अपनी कन्या कहकर सिर नीचा करेगा। तुम्हारे-जैसे इसके बहुत-से संरक्षक मिलेंगे। बस अब मुझ से कुछ न कहो—यात्री का दम्भ उसके अधरों में स्फुरित हो रहा था। तारा अधीर होकर रो रही थी और युवक इस कठोर उत्तर को अपने मन में तोल रहा था।

गाड़ी बीच के छोटे स्टेशन पर नहीं रुकी। स्टेशन की लालटेनें जल रही थी। तारा ने देखा, एक सजा-सजाया घर भागकर छिप गया। तीनों चुप रहे।