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विदुषी सुभद्रा ने कहा-परमात्मा की कृपा से तारादेवी के शुभ पाणि-ग्रहण के अवसर पर हम लोग फिर इसी प्रकार सम्मिलित हों।

मंगलदेव ने,जो अभी तक अपनी प्रशंसा का बोझ सिर नीचे किये ऊठा रहा था,कहा-जिस दिन इतना हो जाय,उसी दिन मैं अपने कर्त्तव्य को पूरा कर सकूँगा।

तारा सिर झुकाये रही।उसके मन में इन सामाजिकों की सहानुभूति ने एक नई कल्पना उत्पन्न कर दी। वह एक क्षण भर के लिए अपने भविष्य में निश्चिन्त हो गई।

उपवन के बाहर तक तारा और मंगलदेव ने अतिथियों को पहुँचाया।वे लोग बिदा हो गये। मंगलदेव अपनी कोठरी में चला गया और तारा अपने कमरे में जाकर पलंग पर लेट गई। उसने एक बार आकाश के सुकुमार शिशु को देखा।छोटे-से चन्द्र की हलकी चाँदनी में वृक्षो की परराई उसकी कल्पनाओं को रंजित करने लगी। वह अपने उपवन का मुक दृश्य खुली आँखों से देखने लगी।पलकों में नींद न थी, मन में चैन न था,न जाने क्यों उसके हृदय में धड़कन बढ़ रहींं थी। रजनी के नीरव संसार में वह उसे साफ सुन रही थी। जगते-जगते रात दौ पहर से अधिक चली गईं।चन्द्रिका के अस्त हो जाने से उपवन में अंधेरा फैल गया। तारा उसी में आँख गड़ाकर ने जाने क्या देखा चाहती थी। उसका भूत, वर्तमान और भविष्य--तीनो अन्धकार में कभी छिपते और कभी ताराओं ने रूप में चमक उठते। वह एक बार अपनी इस वृत्ति को आवाह्न करने की चेष्टा करने लगी,जिसकी शिक्षा उसे वेश्यालय में मिली थी। उसने मंगल को तब नहीं; परन्तु अब खींचना चाहा। रसीली कल्पनाओं से हृदय भर गया। रात बीत चली। उषा का आलोक प्राची में फैल रहा था। उसने खिड़की से झांक पर देखा तो उपवन में चहल-पहल थीं। जूही की प्यालियों में मकरन्द-मदिरा पीकर मधुपों की टोलियाँ लड़खड़ा रही थी,और दक्षिणपवन मौलसिरी के फूलों की कौड़ियाँ फेअ रहा था।कमर से झुकी हुई अलबेली बेलियां नाच रही थी।मन की हार-जीत हो रही थी।

मंगलदेव ने पुकारा-नमस्कार!

तारा ने मुस्कराते हुए पलंग पर बैठकर दोनों हाथ सिर से लगाते हुए कहा--नमस्कार !

मंगल ने देखा--कविता में वर्णित नायिका जैसे प्रभात को शैया पर बैठी हैं।

कंकाल:१९