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दोनों उतरकर गंगा के समीप के शिला-खण्ड़ो से लगकर बैठ गये। जान्हवी के स्पर्श से पवन अत्यन्त शीतल होकर शरीर में लगता है।यहाँ धूप कुछ भली लगती थी। दोनों विलम्ब तक बैठ चुपचाप निसर्ग सुन्दर दृश्य देखने थे। संध्या हो चली। मंगल ने कहा—तारा चलो,घर चलें। तारा चुपचाप उठी. मंगल ने देखा,उसकी आँखें लाल हैं। मंगत ने पूछा- क्या सिर में दर्द है।

नहीं तो।

दोनों घर पहुँचे।मंगल ने कहा- आज ब्यालू बनाने की आवश्यकता नही, जो कहो बाजार से लेता आऊँ।

इस तरह कैसे चलेगा। मुझे हुआ क्या है,थोड़ा दूध ले आओ,तो खीर बना दूँ। कुछ पूरियाँ बची है।

मंगलदेव दूध लेने चला गया।

तारा सोचने लगीं-मंगल मेरा कौन है, जो मैं इतनी आज्ञा देती हूँ। क्या वह मेरा कोई है।—मन में सहसा बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ उदित हुई और गंभीर आकाश के शुन्य में ताराओं के समान डूब गई। वह चुप बैठी रहीं।

मंगल दूध लेकर आया। दीपक जला ! भोजन बना। मंगल ने कहा-तारा,आज तुम मेरे ही साथ बैठकर भोजन करो।

तारा को कुछ आश्चर्य न हुआ, यद्यपि मंगल ने कभी ऐसा प्रस्ताव न किया था; परन्तु वह उत्साह के साथ सम्मिलित हुई।

दोनों भोजन करके अपने-अपने पलंग पर चले गये। तारा की आँखों में नींद न थी। उसे कुछ शब्द सुनाई पड़ा। पहले तो उसे भय लगा, फिर साहस करने उठी। आहट लगा कि मंगल का-सा शब्द हैं। वह उसके कमरे में जाकर खड़ी हो गई। मंगल सपना देख रहा था, बर्राता था—कौन कहता है कि तारा मेरी नहीं है? मैं भी उसी का हूँ। तुम्हारे हत्यारे समाज की मैं चिन्ता नही करता... वह देवी है।मैं उसकी सेवा करुँगा...नहीं-नहीं, उसे मुझसे न छीनो।

तारा पलंग पर झुक गईथी।वसन्त की लहरीली समीर उसे पीठ से ढकेल रही थी। रोमांच हो रहा था,जैसे कामना-तरंगिनी में छेटी-छोटी लहरियाँँ उठ रही थी। कभी वक्षस्थल में कभी कपोलों पर स्वेद हो जाते थे। प्रकृति प्रलोभन से सजी थी। विश्व एक भ्रम बनकर तारा के यौवन की उमंग में डूबना चाहता था।

सहसा मंगल ने उसी प्रकारसपने में बर्राते हुए कहा--मेरी तारा, प्यारी तारा आओ।—उसके दोनों हाथ उठ रहे थे कि आँखें बन्द कर तारा ने अपने को मंगल के अंक में डाल दिया।

कंकाल:३१