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जयशङ्कर 'प्रसाद'


काशी के उत्तर कीर्ति, श्री, विद्या और विनय से संपन्न भक्तिप्रधान सुंघनी साहु के माहेश्वर कुल में साहु देवीप्रसाद के कनिष्ठ आत्मज के रूपे में श्री जयशङ्कर 'प्रसाद' का जन्म हुआ। उन्होंने स्थानीय क्वींस कालेज से छठवीं कक्षा तक अध्ययन प्राप्त किया। उसके बाद हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत के परंपरागत विद्वानों से घर पर ही काव्य और साहित्य की ठोस प्रारम्भिक शिक्षा पाई। बाल्यावस्थ से ही कवियों और मनीषियों के आत्मीय सत्संग से उनकी नैसर्गिक प्रतिभा विकसित हो चली। किशोरावस्था में ही कविता उनके कंठ से फूट चली और अपनी त्रयपुरुशी व्यावसायिक गद्दी–नारियन बाजार वाली सुंघनी साहु की दुकान पर अविदित भाव से उन्होंने चुपचाप काव्य साधना को अग्रसर किया। वि॰ संवत् १९६३ में 'भारतेन्दु' में पहली बार उनकी रचना प्रकाशित हुई : इसी वर्ष उन्होंने 'उर्वशी चंपू' एवं 'प्रेम शब्द' के प्रकथन किये जिनका प्रकाशन वि॰ सं॰ १९६६ में हुआ। साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में नये-नये उन्मेष लेकर 'इन्दु' के माध्यम से उनकी कवितायें, कहानियाँ, नाटक और निबन्ध प्रकाशित होने लगे। अगस्त १९१० के 'इन्दु' (कथा १ किरण २ भाद्र १९६५) में 'ग्राम' नामक उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई; हिन्दी में कथा साहित्य के एक नये युग की स्थापना हुई। काव्य की नवीन शैली के सर्वश्रेष्ट कवि के रूप में उन्हें उसका प्रजापति कहा जा सकता है। हिन्दी के महिमामण्डित लेखक, नाटककार और मौलिक कहानीकार के रूप में साहित्य को उनकी बड़ी देन है।

उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। उनकी लेखनी के पारस ने --- के जिस विषय को जहाँ भी स्पर्श किया वह मिट्टी से सोना ----