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मैं करूँँगी बहन। संसार बड़ा खराब है। तुम्हारा उद्धार इसलिए नहीं हुआ है कि तुम यों ही पड़ी रही। मंगल में यदि साहस नहीं है, तो दूसरी पात्र ढूंढा जायगा; परन्तु सावधान ! तुम दोनों का इस तरह रहना कोई भी समाज हो, अच्छी आँखों से नहीं देखेगा। पाहे तुम दोनों कितने ही पवित्र हो !

तारा को जैसे किसी ने चुटकी काट ली। उसने कहा—न देखें समाज, भले ही, मैं किसी से कुछ चाहती तो नही; पर मैं अपने से ब्याह का प्रस्ताव किसी से नही कर सकती।

भूल है प्यारी बहन ! हमारी स्त्रियों की जाति इसी में मारी जाती है। वे मुँँह खोलकर सीधा-सादा प्रास्ताव नही कर सकती;परंतु संकेतों से,अपनी कुटिल अंग-भंगियो के द्वारा प्रस्ताव से अधिक करके पुरुषों को उत्साहित किया करती है। और बुरा न मानना, तब में अपना सर्वस्व अनायास ही नष्ट कर देती है। ऐसी कितनी ही घटनाएँ जानी गई हैं।

तारा जैसे घबरा उठी। वह कुछ भारी मुँह किये बैठी रही।सुभद्रा भी कुछ समय बीतने पर चली गई।

मंगलदेव पाठशाला से लौटा। आज उसके हाथ में एक भारी गठरी थी। तारा उठ खड़ी हुईं।पूछा--आज यह क्या लाये? हँसते हुए मंगल ने कहा---देख लो।

गठरी खुली–साबुन,रुमाल, कांच की चूँटियां, अतर और भी कुछ प्रसाधन के उपयोगी पदार्थ थे।तारा ने हंसते हुए उन्हे अपनाया।

मंगल ने कहा--आज समाज में चलो, उत्सव हैं।कपडें बदल लो।

तारा ने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया। कपड़े का चुनाव होने लगा। साबुन लगा,कंघी फेरी गईं। मंगल ने तारा की सहायता की, तारा ने मंगल की।दोनोंं नई स्फूति से प्रेरित होकर समाज-भवन की ओर चले।

इतने दिनों बाद तारा आज ही हरद्वार के पथ पर बाहर निकल कर चली। उसे गलियों का, घाटों को, बाल्यकाल का दृश्य स्मरण हो रहा था-यहाँ वह खेलने आती,यहाँ दर्शन करती,वहाँ पर पिता के साथ घूमने आती।राह चलते-चलते उसे स्मृतियों ने अभिभूत कर लिया।अकस्मात् एक प्रौढ़ा स्त्री उसे देखकर रुकी और साभिप्राय देखने लगी।वह पास चली आई।उसने फिर आँखे गड़ाकर देखा तारा तो हैं।

हाँ,चाची !

अर तू कहाँ?

भाग्य !

कंकाल:३३