क्या तेरे बाबूजु नहीं जानते !
जानते हैं चाची, पर मैं क्या करू?
अच्छा तू कहाँ है ? मैं आऊँगी।
लालाराम की बगीची मे !
चाची चली गई।वे लोग समाज-भवन की और चले !
कपड़े सूख चुके थे।तारा उन्हें इकट्ठा कर रही थीं। मंगल बैठा हुआ उनकी तह लगा रहा था।बदली थी। मंगल ने कहा--आज खूब जल बरसेगा।
क्यों ?
बादल भींग रहे हैं, पवन रुका है।प्रेम का भी पूर्व रूप ऐसा ही होता है।तारा ! मैं नहीं जानता था प्रेम-कादम्बिनी हमारे हृदयाकाश मैं कबसे अड़ी थी और तुम्हारे सौन्दर्य का पवन उस पर घेरा डाले हुए था।
मैं जानती थी।जिस दिन परिचय की पुनरावृत्ति हुई, मेरे खारे आंसुओं के प्रेम-घन बन चुके थे। मन मतवाला हो गया था; परन्तु तुम्हारी सौम्यसंयत चेष्टा ने रोक रखा था।मैं मन ही मन मसूसकर रह जाती। और इसीलिये मैने तुम्हारी इच्छा पर अपने को चलने के लिए बाध्य किया। मैं तुम्हारी आज्ञा मान कर तुम्हें अपने जीवन के साथ उलझाने लगी थी।
मैं नहीं जानता था,तुम इतनी चतुर हो। अजगर के श्वास में खिंंचे हुए मृग के समान मैं तुम्हारी इच्छा के भीतर निगल लिया गया।
क्या तुम्हें इसका खेद है?
तनिक भी नहीं प्यारी तारा,हम दोनों इसीलिए उत्पन्न हुए थे। अब मैं उचित समझता हूँ कि हम लोग समाज के प्रचलित नियमों में आबद्ध हो जाय,यधपि मेरी दृष्टि में सत्य प्रेम के सामने उसका कुछ मूल्य नहीं।
जैसो तुम्हारी इच्छा।
अभी ये लोग बातें कर रहे थे कि उस दिन की चाची दिखलाई पड़ी। तारा ने प्रसन्नता से उसका स्वागत किया।उसकी चादर उतारकर उसे बैठाया।मंगलदेव बाहर चला गया।
तारा, तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया--चाची ने कहा।
क्यों चाची ! जहाँ अपने परिचित होते हैं,वहीं तो लोग जाते हैं।
परन्तु दुर्नाम की अवस्था में उस जगह से अलग रहना चाहिए।
तो क्या तुम लोग चाहती हो कि मैं यहाँ न रहूँ?
नही-नहीं,भला ऐसा भी कोई कहेगा!-—जीभ दबाते हुए चाची ने कहा।
३४:प्रसाद वाङ्मय