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नहीं तो अब तक मोहनदास तुम्हारे पैरों पर नाक रगड़ता। वह कई बार मुझसे कह भु चुका है।

बस करो चाची, मुझसे ऐसी बातें न करो। यदि ऐसा ही करता होगा,तो मैं किसी कोठे पर जा बैठूँगी; पर यह टट्टी की ओट मे शिकार करना मैं नहीं जानती।-- तारा ने ये बातें कुछ क्रोध से कहीं।चाची का पारा चढ़ गया।उसने बिगड़ कर कहा--देखो निगोडी मुझी को बातें सुनाती है।करम आप करे और आँँख दिखावे दूसरे को!

तारा रोने लगी।वह उस खुर्राट चाची से लड़ना न चाहती थी; परन्तु अभिप्राय न सधने पर चाची स्वयं लड़ गई। वह सोचती थी कि अब इसका सामान धीरे-धीरे ले ही लिया, दाल-रोटी दिन में एक बार खिला दिया करती थी। जब इसके पास कुछ बचा ही नहीं और आगे की कोई आशा भी न रही,तब इसका झंझट क्यों अपने सिर रक्खे।वह क्रोध से बोली-रो मत राँड कही की। जा हट, अपना दूसरा उपाय देख। मैं सहायता भी करुँ और बाते भी सुनूँ, यह नहीं हो सकता। कल मेरी कोठरी खाली कर देना, नहीं तो झाडू, मारकर निकाल दूँगी।

तारा चुपचाप रो रही थी, वह कुछ न बोली। रात हो चली ! लोग अपने-अपने घरों में दिन भर के परिश्रम का आस्वाद लेने के लिए किवाडे बन्द करने लगें; पर तारा की आँखें खुली थी। उनमें अब आँसू भी न थे। उसकी छाती में मधु-विहीन मधुचक्र-सा एक नीरस कलेजा था।जिसमें वेदना की ममाछियों की भन्नाहट थी। संसार उसकी आँखों में धूम जाता था, वह देखते हुए भी कुछ न देखनी थी।

चाची अपनी कोठरी में जाकर खा-पी कर हो रही।बाहर कुत्ते भूँक रहे थे। रात आधी बीत रही थी। रह-रहकर निस्तब्धता का झोका आ जाता था। सहसा तारा उठ खड़ी हुई। उन्मादिनी के समान वह चल पड़ी।फटी धोती उसके अंग पर लटक रही थी। बाल बिखरे थे। बदन विकृत। भय का नाम नहींं। जैसे कोई यंत्रचालित शव चल रहा है। वह सीधे जान्हवी के तट पर पहुँची। ताराओं की परछाई गंगा के वक्ष में खुल रही थी। स्त्रोत में हर-हर की ध्वनि हो रही थी। तारा एक शिलाखण्ड़ पर बैठ गई। यह कहने लगी--मेरा अब कौन रहा, जिसके लिए मैं जीवित रहूँ।मंगल ने मुझे निरपराध ही छोड दिया, पास में पाई नहीं, लाञ्छनापूर्ण जीवन, कहीं धंधा करके पेट पालने लायक भी न रही। फिर, इस जीवन को रखकर क्या करूँँ ! हाँ, गर्भ में कुछ है,वह

४०:प्रसाद वाङ्मय