पृष्ठ:कंकाल.pdf/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


चेष्टा करके भी सहायता प्राप्त न कर सका, क्योंकि सुनता हूँ कि वह अनाथालय भी टुट गया।

विजय—तुमने रहस्य की बात तो कहीं हीं नही।

मंगल-विजय ! रहस्य यही कि मैं निर्धन हूँ, मैं अपनी सहायता नहीं कर सकता? मैं विश्वविद्यालय की डिग्री के लिए नहीं पढ़ रहा हूँ। केवल कुछ महीनों की आवश्यकता है कि मैं अपनी पाली की पढ़ाई प्रोफेसर देव से पूरी कर लूँ। इसीलिए मैं यह सोना बेचना चाहता हूँ।

विजय ने उस यंत्र को देखा, सोना तो उसने एक और रख दिया; पर सूर्नपत्र के छोटे-से बंडल को–जो उसके भीतर था—विजय ने मंगल का मुंह देखते-देखते कुतुहल से खोलना आरम्भ किया। उसका कुछ अंश खुलने पर दिखाई दिया कि उसमे लाल रंग के अष्टमंत्र से कुछ स्पष्ट प्राचीन लिपि है। विजय ने उसे खोलकर फेंकते हुए कहा–लो यह किसी देवी-देवता का पूरा स्तोत्र भरा पड़ा है।

मंगल ने उसे आश्चर्य से उठा लिया। वह लिपि को पढ़ने की चेष्टा करने लगा। कुछ अक्षरों को वह पढ़ भी सका; परन्तु वह प्राकृत न थी, संस्कृत थी। मंगन ने इसे समेटकर' जेब में रख लिया। विजय ने पूछा-क्या है? कुछ पढ़ सके?

कल इसे प्रोफेसर देव से पढ़ाऊँगा। यह तो कोई शासन-पत्र मालूम पड़ता हैं।

तो क्या इसे तुम नहीं पढ़ सकते ?

मैंने तो अभी प्रारम्भ किया है, यह अध्ययन मेरा गौण है, प्रोफेसर को जब छुट्टी रहती है, कुछ पढ़ा देते हैं।

अच्छा मंगल ! एक बात कहूँ, तुम मानोगे ? मेरी भी पढ़ाई सुधर जाएगी।

क्या ?

तुम मेरे ही साथ रहा करो, अपना चित्रों का रोग मैं छुड़ाना चाहता हूँँ।

तुम स्वतंत्र नहीं हो विजय ! क्षणिक उमंग में आकर हमे वह काम नहीं करना चाहिए, जिसमें जीवन के कुछ ही लगातार दिनों में पिरोये जाने की संभावना हो, क्योकि उमंग की उड़ान नीचे आया करती है।

नही मंगल। मैं माँ से पूछ लेता हैं—कहकर विजय तेजी से चला गया। मंगल हाँ हाँ-कहता ही रह गया। थोड़ी देर में ही हँसता हुआ लौट आया और बोला-माँ तो कहती हैं कि उसे यहाँ से मैं न जाने दूँगी ।

५२ : प्रसाद वाङ्मय

५२:प्रसाद वाङ्मय