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आज बड़ा समारोह है। निरंजन चाँदी के पात्र निकालकर दे रहा है-- आरती, फुल, चंगेर, धूपदान, नैवेद्यपात्र और पंचपात्र इत्यादि मौज-धोकर साफ किये जा रहे हैं। किशोरी मेवा, फल, धूप, बत्ती और फूलों की राशि एकत्र किये उसमें सजा रही हैं । घर की सब दास-दासियाँ ब्यस्त है। नवागत युवती घूंघट निकाले एक ओर खड़ी है।

निरंजन ने किशोरी से कहा—सिंहासन के नीचे अभी धुला नहीं है, किसी से कह दो कि उसे स्वच्छ कर दे।

किशोरी ने युवती की ओर देखकर कहा जा तो उसे धो डाल!

युवती भीतर पहुँच गई। निरंजन ने उसे देखा और किशोरी से पूछा- यह कौन है?

किशोरी ने कहा-वही जो उस दिन रखी गई है। किशोरी ने झिड़ककर कहा—ठहर जा , बाहर चल ।—फिर कुछ क्रोध से किशोरी की ओर देखकर कहा- यह कौन है, कैसी हैं, देवगृह में जाने योग्य है कि नहीं, समझ लिया है या यों ही जिसको हुआ कह दिया।

क्यों, मैं उसे तो नहीं जानती।

यदि अछूत हो, अन्यत्र हो, अपवित्र हो?

तो क्या 'भगवान, उसे पवित्र नही कर देंगे? आप तो कहते हैं कि भगवान् पतित-पावन हैं, फिर बड़े-पड़े पापियों को जब उध्दर की आशा है, तब इसको क्यों वंचित किया जाय? कहते-कहते किशोरी ने रहस्यभरी मुसकान चलाई।

निरंजन क्षुब्ध हो गया; परन्तु उसने कहा अच्छा शास्त्रार्थ रहने दो।इसे कहों कि बाहर चली जाय।-निरंजन की धर्म-हठ उत्तेजित हो उठी थी।

किशोरी ने कुछ कहा नहीं; पर युवती देवगृह के बाहर चली गई, और वह एक कोने में बैठकर सिसकने लगी। सब अपने कार्य में

व्यस्त थे। दुखिया के रोने

५४:प्रसाद वाङ्मय