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की किसे चिन्ता थी! वह भी जी हल्का करने के लिए खुलकर रोने लगी। उसे जैसे ठेश लगी थी। उसका घूंघट हट गया था। आँखों में आंसू की धारा बह रही थी। विजय, जो दूर से यह घटना देख रहा था, इस युवती के पीछे-पीछे चला आया था-कुतूहल से इस धर्म के क्रूर दम्भ को एक बार खुलकर देखने और तीखे तिरस्कार से अपने हृदय को भर लेने के लिए; परन्तु देखा तो यह दृश्य, जो उसके जीवन में नवीन य-एक कष्ट से सताई हुई मुन्दरी का रुदन।

विजय के वे दिन थे, जिसे लोग जीवन का वसंत कहते हैं। जब अधूरी और अशुध्द पत्रिकाओं के टूटे-फूटे शब्दों के लिए हृदय में शब्दकोश प्रस्तुत रहता है। जो अपने साथ बाढ़ में बहुत अच्छी वस्तु ले आता है और जो संसार को प्यारा देखने का चश्मा लगा देता है। संसार से अभ्यस्त सौन्दर्य को खिलौना समझ कर तोड़ना ही नहीं, वरंज उसने हृदय देखने की पाठ उत्पन्न करता है। जिसे यौवन कहते हैं--शीतकाल में छोटे दिनों में घनो अमराई पर विछलती हुई हरियाली से तर धूप के समान स्निग्ध यौवन।

इसी समय मानव-जीवन में जिज्ञासा जगती। स्नेह,संवेदना, सहानुभूति का ज्वार आता है। विजय का विप्लवी हृदय चंचल हो गया। उसने जाकर पूछा---यमुना,तुम्हें किसी में कुछ कहा है?

यमुना नि:संकोच भाव से बोली–मेरी अपराध था।

क्या अपराध था यमुना ?

मैं देव-मन्दिर में चली गई थी।

तब क्या हुआ?

बाबाजी बिगड़ गये। रो मत, मैं उनसे पूछूँगा।

मैं उनके बिगड़ने पर नही रोती हूँ, रोती हूँ अपने भाग्य पर और हिन्दू समाज की अकारण निष्ठुरता पर जो भौतिक वस्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका हैं, भगवान पर भी स्वतन्त्र भाग का साहरा रखता है!

क्षणभर के लिए विजय विस्मय-विक्षुब्ध रहा--यह दासी---दीन दुखिया--इसके हृदय में इतने भाव? उसकी सहानुभूति उन्छूखल हो उठी, क्योकि वह बात उसके मन की थी। विजय में कहा---न रो यमुना !जिसके भगवान् सोने चांदी से घिरे रहते हैं-उनको रखवाली की आवश्यकता होती है।

यमुना की रोती हुई आँखे हँस पड़ी--उसने कुतलता की दृष्टि से विजय को देखा। विजय भूलभुलेया में पड़ गया। उसने स्त्री की-एक युवती स्त्री की सरल

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