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सहानुभूति कभी पाई न थी। उसे भ्रम हो गया, जैसे बिजली कोध गई हो। वह निरंजन की ओर चला, क्योंकि उसकी सब गर्मी निकालने का यही अवसर था।

निरंजन अन्नकूट के सम्भार में लगा था। प्रधान योजक बनकर उत्सव का संचालन कर रहा था। विजय ने आते ही आक्रमण आरम्भ कर दिया-बाबाजी, आज क्या है ?

निरंजन उत्तेजित तो था ही, उसने कहा-तुम हिन्दू हो कि मुसलमान? नहीं जानते, आज अन्नकूट है।

क्यों, क्या हिन्दू होना परम सौभाग्य की बात है? जब उस समाज का अधिकांश पददलित और दुर्दशाग्रस्त हैं, जब उसके अभिमान' और गौरव की वस्तु घरापृष्ठ पर नहीं बनी--उसकी संस्कृति विडंबना, उसकी संस्था साराहीन, और राप्ट्र बौद्धों के शून्य के सदृश बन गया है; जब संसार की अन्य जातियाँ सार्नजनिक भ्रातृभाव र साम्यवाद को लेकर खडी है, तब आपके इन खिलौनों से भला उसकी सन्तुष्टि होगी?

इन खिलौनों-कहते-कहते उसका हाथ देवविग्रह की ओर उढ़ गया था। उसके आक्षेपों का जो उत्तर निरंजन देना चाहता था, वह क्रोध के वेग में भूल गया और सहसा उसने कह दिया नास्तिक!हट ज़ा!

विजय की कनपटी लाल हो गई, बरौनियाँ तन गई। वह कुछ बोला ही चाहता था कि मंगल ने सहसा आकर हाथ पकड़ लिया, और कहा, विजय!

विद्रोही विजय वहाँ से हटते-हटते भी मंगल से यह कहे बिना नहीं रहा--धर्म के सेनापति विभीषिका उत्पन्न करके साधारण जनता से अपनी वृत्ति कमाते है और उन्हीं को गालियां भी सुनाते हैं गुरुधर्म कितने दिनों तक चलेगा, मंगल ?

मंगल विजय को बचाने के लिए उसे घसीटता ले चला और कहने लगा--चलो, हम तुम्हारा शास्त्रार्थ-निमंत्रण स्वीकार करते हैं। दोनों अपने कमरे की ओर चले गये।

निरंजन पल भर में आकाश से पृथ्वी पर आ गया। वास्तविक वातावरण में क्षोभ और क्रोध, लज्जा और मानसिक दुर्बलता ने उसे चैतन्य कर दिया। निरंजन को उद्विग्न होकर उठते देख, किशोरी--जो अब तक स्तब्ध ही रही थी---बोल उठी लड़का है।

निरंजन ने वहाँ से जाते-जाते कहा-लड़का है तो तुम्हारा हैं, साधुओं को इसकी चिन्ता क्या? उसे अब भी अपने त्याग पर विश्वास था।

किशोरी निरंजन को जागती थी, उसने उन्हें रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वह रोने लगी।

५६:प्रसाद वाङ्मय