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हानि है ? दिन बहुत बीत चुका, चलते-चलते संध्या हो जायगी। विजय, कहो, तो घर ही लौट चला जाय?

विजय सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी।

माशियों ने उसी और खेना आरम्भ कर दिया।

वो दिन तक मंगलदेव से और विजयचन्द्र से भेट ही न हुई। मंगल चुपचाप अपनी किताबों में लगा रहता, और समय पर स्कूल चला जाता। तीसरे दिन अकस्मात् यमुना पहले-पहल मंगल के कमरे में आई। मंगल सिर झुकाकर पड़ रहा था, उसने देखा नहीं। यमुना ने कहा--आज तीसरा दिन हैं, विजय बाबू ने तकिये से सिर नहीं उठाया, ज्वर बड़ा भयानक होता जा रहा है। किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखा लाते।

मंगल ने आश्चर्य से शिर उठाकर फिर देखा-यमुना ! यह चुप रह गया। फिर सहसा अपना कोट लेते हुए उसने कहा-मैं डाक्टर दीनानाथ के यहाँ जाता हूँ--और वह कोठरी से बाहर निकल गया।

विजयचन्द्र पलंग पर पड़ा करवट बदल रहा था। बड़ी बेचैनी थी। किशोरी पास ही बैठी थी। यमुना सिर सहला रही थी। विजय कभी-कभी उसका हाथ पकडकर माथे से चिपटा लेता था।

मंगल डाक्टर को लिए हुए भीतर चला आया। डाक्टर ने देर तक रोगी की परीक्षा की। फिर सिर उठाकर एक बार मंगल की ओर देखा और पुछा-रोगी को किसी आकस्मिक घटना से दुःख तो नहीं हुआ है?

मंगल ने कहा-ऐसा तो कोई बात नहीं है। हाँ, इसके दो दिन पहले हम लोगों ने गंगा में पहरी स्नान किया और तेरे थे।

डाक्टर ने कहा-- कुछ चिन्ता नहीं। थोड़ा यूक्लोन सिर पर रखना चाहिए, वेचैनी हट जायगी। और दया लिखे देता हैं। चार-पाँच दिन में ज्वर उतरेगा। मुझे टेम्परेचर का समाचार दोनों समय मिलना चाहिए।

किशोरी ने कहा-आप स्वंय दो बार दिन में देख लिया कीजिए तो अच्छा हो।

डाक्टर बहुत ही स्पष्टवादी और चिड़चिड़े स्वभाव का था, और नगर में अपने नाम में एक ही था। उसने कहा—मुझे दोनो समय देखने का अवकाश नही, और आवश्यकता मभी नहीं है। यदि आप लोगो से इतना भी नहीं हो सकता, तो डॉक्टर की दवा करानी व्यर्थ है।

६४:प्रसाद वाङ्मय