पृष्ठ:कंकाल.pdf/७८

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पूजा रामा हा शुकी थी ! मनको मलने के लिए कहा गया । पशुमा चैग उठाया । सब उतरने लगे। झुप शादी हो गई थी, विजय ने अपना ना चोल लिया। उसकी बार-बार इण्य होती कि पह पमूगों से इसी की छाया में सिने के लिए मा; पर साहस न होता । यमुना की दो-एक सटे पसीने से उसके गुन्दर भ पर चिपक गई थी। विजय उसी विचित्र निषि यो पढ़ते-पो पहाड़ी से नोरे उतरा । सब लोग काशी सौट आये। कंकाल : १८