पृष्ठ:कंकाल.pdf/८४

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तक पहुंचाया जा सकता है। इन्द्रियपरायण पशु के दृष्टिकोण से मनुष्य की राय गुथिधानों के विचार नहीं किये जा राकते, कयोंकि फिर तो पशु और मनुष्य में सापन-भेद रह जाता है। वाते वे ही है। मनुष्य की अगुविधाओं का, अनन्त साधनों के रहते, अन्त नही, वह इच्छृखल होना ही चाहता है ।। निरंजन को उसकी चुक्तिमा परिमाजित और भाषा प्राप्त देकर घडी प्रसन्नता हुई, उसका पक्ष लेते हुए उसने झप्प्ता- ठीक करने हो भंगलदेव ! विजय और भी गरम होकर आक्रमण करते हुए बोला-लौर उन ढकोसलों में या तथ्य है ?--उका वेरा मंदिर के शिखर की अोर या ।। हुमारे धर्म गुरूपतः एकेश्वरवादी हैं विजय वायू ! बह जान-प्रघान है; परन्तु अद्वैतवाद की दानिय युक्तियों को स्वीपार करते हुए कोई भी वर्णमाला का पिरोघी बन जाम, ऐसा तो कारण नहीं दीख पड़ा । मूसिलूशा इत्यादि जैसी रूप में है। पाठशाला में सबके लिए एक कक्षा नहीं होती, इसलिए अधिकारी- भेद है। हम दोन सर्वव्यापी महानु की सत्ता को सदियों के घर में, बृक्षों में, पत्रों में, सर्वत्र धीबार वारने यो परीक्षा देते हैं। परन्तु हृदय में ना मानते, चाहे अन्यत्र सय जगह गान लें ।-तर्क न करने विजय ने दांग किया । मंगल गै हताश होकर किशोरी की ओर देखा। तुम्हारा हृणिकुन कैसा पल रहा है मंगल १–किशोरी ने पूरी । दरिंद्र हिन्दुओ थे ही लड़के मुझे मिलते हैं। मैं उनके साय निरम भीय मांगता है। जो अन्न-वस्त्र मिला है, इसी में सर्वका निर्वाह होता है। मैं स्वयं इन्हें संस्कृत और प्राकृत पढाता है। गृहस्थ ने अपनी उजड़ा हुभा उपवन ३ दिया है। उसमें एक और लम्बी-सी दालान है और पाच-सात वृक्ष हैं; इतने में सब काग जल जाता है। पीस और बर्मा में कुछ कष्ट होता है, अगोंकि दरिद्र है हो गया, हैं तो सके ही न ! तिने लड़के हैं मंगल ?—निरंजन ने पूछा । आठ तड़के हैं, आठ बरस से लेकर सोलह सरस तक के । मॅगल ! और हैं जो हो, तुम्हारे इरा परिथम कौर कष्ट की सुय-निष्ठा पर वई अविश्वास नहीं कर सकता। मैं भी नहीं ।--विजय ने कहा है। | गंगल मित्र के मुख से मह बात सुनकर प्रसन्न हो उठा। वह वाहने सगा- देखिए विजय यातु ! मेरे पास एक ही पोसौ और गोछा है । एक घार भी है। मेरा सब काम तने से चल जाता है । कोई असुविधा नहीं होती। एक तम्बा- । दाट है । इस पर सब सो हते है । दो-तीन बरतने हैं । और पाठ्य-पुस्तको कंमत : ७५