पृष्ठ:कंकाल.pdf/८५

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की एनएनः प्रवियते । इतनी हो तो मेरे ऋपिंकुल की सम्पत है ।—- फतै वह हँस पडा। | अमुना भीतर पोलीभीत मैं चावल चीन रही थी और बनाने के लिए । रोएँ खड़े हो गये । मंगन क्या है ?--देवता है ! इसी समय उसे अपने सिरस्कृत हुदय-चिंह का ध्यान आ गया! उग्रने मन में सोचा-पुरुप को उसकी क्या चिन्ता हो सकती है, यह तो अपना मुत्र विराजित वर देता है जिसे अपने हुक्त से उसे सुख की चींचना पड़ता है, वहीं तो उसकी व्या जानेगा |-उराने कहा—मगत ही नही, सब पुरुष राक्षस हैं; देवता मदापि नहीं हो सकते ।-वह दूसरी और वर चली गई । । कुछ समय पुप रहने के बाद विय ३ कहा- जो हमारे दान में अधिकारी हैं, धर्म के ठेकेदार हैं, उन्हें इसीलिए तो समान देता है कि मैं उसका राइपयोग करे; परन्तु में 'मन्दिरों में, मठों में बैठे मौज उड़ाते हैं उन्हें या चिन्ता त्रिः समाज के कितने बच्चे भुयै, नगे और अशिक्षित हैं 1 मंगलदेव ! आहे मेरा मत तुमसे न मिलता हो, परन्तु तुम्हारा उद्देश्य सुन्दर है। | निरंज़न जैसे सचेत हो गया। एक बार उसने विजय की और देया; पर गौता नहीं । विपरी ने कहा--मंगलदैव ! ६ परदेश में हैं, इसलिए विश्व सुमिता नहीं कर सकतौ; हो तुम लोगों के लिए यस्य और पाठ्य-पुस्तुको की जितनी अत्यन्त शाययकता हो, मैं हूँ । और, झौत, जप-निवारण वैः मग्म साधारण गृह वनया देने का मार मैं सेवा हैं मैगप्त !-निरंजन ने वहा ।। | मंगल ! मैं तुम्हारी इस सफलता पर बधाई देता हूँ।- राते हुए विषय नै फाझले मैं तुम्हारे ऋपिकृत में भागा ।। निरंजन और किशोरी ने कहा--हुम लोग थे । मंगल कृतज्ञता से लद गया । प्रणाम कर चली गुमा । संग का मन इस घटना से हुका था; पर यमुन बपने भा हृदय । बार- बार पह। गती थी--इन लोगों ने मंगल' को जुधपाद बने तक के लिए न पड़ा, इसका कारण वया उसकी प्रार्थी होकर आना है? यमुना कुछ अनमनी रहने लगी । शिशोरी से यह बात द्धिपी में रहीं । घण्टी प्रायः इन्हीं लोगो के पास कृती । एक दिन किशोरी ने कहा—विनय, कृम लोगो को ब्रज़ अपये बहुत दिन हो गये, अय घर भी चार बाहिर ! हो सके तो अज़ की परिक्रमा भी कर लें । विजनी ने कहा-में तो नहीं जाऊँगा । 19६ : प्रसव घामय