पृष्ठ:कंकाल.pdf/८६

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रोब बातों में अड़ जादा है। यह कोई अवश्य बात नहीं कि मैं गी पुण्य-संचय करू 1-विरक्त हो मार विजय ने कहा---पदि इच्छा हो तो आप पली जा सकती हैं, मैं सप तय यहीं बैठा हूँगा । तो क्या तु यहाँ अबैला रहेगा ? नहीं, मंगल थे आश्रम में जा हँगा । वहाँ मवान बन रहा है, असे भी देखेंगा, कुछ राहायता भी कगा और मन भी बहुलेगा । पह अरष ही दद्धि है, में उसके यहाँ जाकर उसे और भी दुध देगा। तो मैं क्या चसने सिर पर डूंगा। यमुना ! तू चलेगी ? फिर विजय चावू फो चिलायेगा कौन ? बहुजी, मैं तो नसने के लिए प्रस्तुत विशोरी मन-ही-मन हुँखी भौ, प्रसन्न भी हुई। और बोली--अच्ी बात है, तो मैं परिंकमी वर आऊँ क्योकि होली देखकर अवश्य पर नोट चलना है । निरंजन और किशोरी परिक्रमा करने चले । एक दासी और जमादार साय गया। तृन्दावन में यमुना और निजय अकेले रहे । केगल घण्टी कभी-कभी लाकर हँसी को हलचल मचा देती । पिजम कभी-कभी दूर यमुना के किनारे चला जाता और दिन-दिन भर पर तीटती। अकेली यमुना उस हँसोड़ के व्यंग से शर्जरित हो जाती 1 घण्ट्र परिहास धरने में ब्री निर्दम थी। एक दिन दोपहर यी काही क्षुप थी। सेठजी मन्दिर में फो झाँकी थी। घंटी आई और यमुना को दर्शन के लिए पकड़ ले गई। दर्शन से पौटते हुए यमुना ने देखा, एयर पोच-चात चुन्नों का मुट थौर पनी छाया । उसने रामशा, कोई देवालय है। वह छाया के सातच से इंटी हुई दीवार सांधकर भीतर गली गई। देखा तो बवाह रह गई.-मंगज़ की मिट्टी का गार बना रहा है, लड़के ईटें ये रहे हैं, दो रान उस मकान की गोडाई कर रहे हैं। परिश्रम से मुंह सरस पा । पन्ना नह रहा था। मंगल पी सुकुमार दे दिया थी । अहं ठिठक कर बड़ी हो गई। घण्टी ने उसे घर देतें हुए चहा-वन यमुना, यह तो ब्रह्मचारी है, हर काहे का !-फिर ठठाघर है। पड़ी। ममुना ने एक बार उसको झोर कोच से देया। यश् शुष गौ न हो सषी यो कि परराा रघका सिर से गौना पोहते हुए मंगल नै पूमर देखा---पमुना ! दौठ गटी से अन नैरो रहा जाय, महू भटककर बोली–पातिनी ! तुम्हें कप्त : ७७