पृष्ठ:कंकाल.pdf/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कान्ह गुना हो !-यमुना ढ़ गई, मंगल ने या अशा होगा ? वह पष्ट मो घसीटती हुई बाहर रिस शाई। यमुना फ रही गी । पचीन-पदोनै गई थी। अभी ये दोनों भदक पर पहुँची पी न यों कि दूर से किसी ने पुकारा- यमुनी । यमुना मन में स्प-निकप फर रही है कि मैगप्त पवित्रता और आलोक है घिरा हुआ पा है कि दुनिता में लिपटा हुआ एक हुन् राम ? इराने समेत कि मंगल पुकार रहा है, वह और नम्ने र बढ़ाने सगी ! सहली अण्टी ने कहा--- अरी यमुनो ! देह तो दिदम बायू हैं, पोटे-ही- अ रहे हैं। | यमुना एका यार बभि उठीत जाने नया; पर खड़ी हो गई। विजय भू- कर सौष्ट रहा था। पर या जाने पर विजय ने एक बार यमुना को मौके ॐ कार वैक देखा। कोई कुछ बोल नहीं, सौनों घर सट आपे । थति की सेप्या योने दी धूल उड़ी ही पी | मुद्दाहे के अन्तरात से भी हुई सूर्यप्रभा उड़ती हुई गर्दै को भी रंग देता । एक अप्तिाद निरप के रों थोर फैल रहा था, मह निर्विकार दृष्टि से बहुत-सी बातें सोचते हुए भी कि पर मन स्थिर नहीं कर सकता। प्रण्टी और मंगन के परदे में पमुना अधिक प्ट हो उठी थी उयका अर्पन मगर को पास के शुमान उरी धन झा या। निजम का दर्य प्रविहिदा और कुद्गत से मर गया था । उसने खिड़की से माँककर देखा, घटी आ रही है। वह मर से बाहर ही वससे जुई मित्र । कहाँ विथ गाइ ?-पष्टी ने पूछी। मंगना के अत्रम् शक थुलो ? शसिए । दोनों इसी य पर अड़े । अधेर हो चला था । मंगल अपने आश्रम में बैठा श्रा (प्योपासने कर हा पी। पीने के भृश्य के ही शिला पर प्रधान संग यह शोधिसत्य की प्रतिभूति दीप पा । विजथे क्ष-भर सय ६धता ४ा, फिर मन-इ-मन कह उश-पासण्टे ?–खोलते हुए सुहा नाचमेने दक मंगत नै पर्ने प्रकाश में यात्रिय और दूर कौन है, एक है ? थभुना तो नहीं है । वह पलभर के लिए अत्तत्ति हो उठा । उसने पुकार.... विजय वानू ।। जिदरा गै कहा--दूर से पूगर र छा है, फिर आऊँगा ।। विजय और मन्दी वही हैं सौद पटे; परन्तु उस दिन,'-" प्रसूता का | ७ : प्रधाइ था