पृष्ठ:कंकाल.pdf/९५

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सामान इकों पर घर जाने लगा । क्रीि और निरंजन हगि पर जा नै । विजय पचाप बैठा रहा, चम्य नहीं । जब यमुना भी बाहर निकलने लगी, सब उरा न रहा गया; पिंजय ने पूछा-यमुना । तुम भी मुस्तै छौड़ कर ली जाती हौ ! पर यमुना कुछ न बोलो। वह दूसरी ओर चली; तगै और इक्वे टेशन की ओर। विजम चुपचाप बैठा रहा है उसने देखा कि यह स्वयं निर्यात है । किशोरी का स्मरण कर एक बार पुका हृदय मास्नेह से उमटू आपा, इसकी इच्छा हुई कि वह भी स्टेशन की राह परा; पर बारमामान नै रोक दिया । इस सामने किशोरी की मामूति दिक्कत हो उ । मह सोचनं सगा-- ग मुझे पुत्र के नाते कुछ भी नहों समझतो, मुसे भी अपने स्वार्थ, गौरव और अधिकार-दम्भ के भीतर ही इंधना चाहती हैं। संतान-स्नेह होता, सो यो । मुझे छोड़कर चली जाती ! मह स्तब्ध वैठी रहा । फिर कुछ विचार कर अपना भी सामान बघने लगा । दो-तीन बैंग नौर पण्डत्त हुए । इराने एक तगवाने की रोककर उस पर अपना सागीने रच दिया, स्वयं भी पढ़ गया और उसे मथुरा की ओर तने लिए गळ दिया । विनम मा बिर सन-रान पर रहा था । लगा अपनी राह पर सप्त रहा था; पर विजय झौ मालूम होता था कि हम बैठे है और पटरी पर है पर और बृक्ष सब हमसे घृणा करते हुए पीछे भाग रहे हैं। अकस्मात् इसके कान में एक गीत का अंश मुनाई पवा- | "में वह जतन से घो 1" उसने ताँगेगाने का कने यैः लिए कहा। घण्टी गाती जा रही थी। मेरा हो चला था। विज्ञप नै भूरा-पष्ट । घण्टी ताँगे के पास घती आई । उसने पूछा- विजय बाबू ? सव सौग यनारस लौट गये । मैं अकेली मघु जा रहा है। अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गई ! अहा विजय बा ! पुरा तो मैं भी चलने को थी; पर फल आऊँगी। तो आज ही क्यों नहीं चलती ? वैठ जाओ, तान पर जगह तो है :-इतना

  • इते हुए बिनम ने बैग तागवाले मै बगल में रख दिया, घण्टी पारी निर बैठ

गई । ८६ : HTव यामम