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कबीर-ग्रंथावली

कबीर कवल प्रकासिया,ऊग्या निर्मल सूर ।
निस अँधियारी मिटि गई,बागे अनहद नूर ॥ ४३ ॥
अनहद बाजै नीझर झरे,उपजै ब्रह्म गियान ।
आवगति अंतरि प्रगटै,लागै प्रेम धियान ।। ४४ ॥
आकासे मुखि औधा कुवाँ,पाताले पनिहारि ।
ताका पांणीं को हंसा पीवै,बिरला आदि बिचारि ॥ ४५ ॥
सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै,पछिम दिसा उठै धूरि ।
जल मैं स्यंघ जु घर करै,मछली चढे खजूरि ।। ४६ ।।
अंमृत बरिसै हीरा निपजै,घंटा पड़ै टकसाल ।
कबीर जुलाहा भया पारषु,अनभै उतरया पार ।। ४७ ।।
ममिता मेरा क्या करै,प्रेम उघाड़ीं पौलि ।
दरसन भया दयाल का,सुल भई सुख सौड़ि ॥४८॥१७० ।।

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(६) रस कौ अंग

कबीर हरि रस यौं पिया,बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का,बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ १ ॥
राम रसाइन प्रेम रस,पीवत अधिक रसाल ।
कबीर पीवण दुलभ है,मांगै सीम कलाल ॥ २ ॥
कबीर भाठी कलाल की,बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौंपै सोई पिवै,नहीं तौ पिया न जाइ ॥ ३ ॥
हरि रस पीया जांणिंये,जे कबहूं न जाइ खुमार ।
मैमंता घूमत रहै,नांही तन की सार ॥ ४ ॥
मैमंता तिण नां चरै,सालै चिता सनेह ।
वारि जु बांध्या प्रेम कै,डारि रह्या सिरि षेह ॥ ५ ॥