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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१०१

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जर्णों को अंग
   मैमंता अविगत रता,अकलप प्रासा जीति ।
   राम अमलि माता रहै,जीवत मुकति प्रतीति ॥ ६ ॥
   जिहि सर घड़ा न डूबता,अब मैं गल मलि मलि न्हाइ ।
   देवल बूडा कलस सूं,पंषि तिसाई जाइ ।। ७ ।।
   सबै रसांइण मैं किया,हरि सा और न कोइ ।।
   तिल इक घट मैं संचरै, तो सब तन कंचन होइ ॥८॥१६८ ॥

(७) लांबि को अंग
   काया कमंडल भरि लिया,उज्जल निर्मल नीर ।
   तन मन जोबन भरि पिया,प्यास न मिटी सरीर ।। १ ॥
   मन उलट्या दरिया मिल्या,लागा मलि मलि न्हांन ।
   थाहत थाह न आवई, तूं पुरा रहिमांन ।। २ ।।
   हेरत हेरत हे सखी,रह्या कबीर हिराइ।
   बूंद समानी समद मैं,सो कत हेरी जाइ ।। ३ ।।
   हेरत हेरत हे सखी,रह्या कबीर हिराइ ।
   समंद समाना बूंद मैं,सो कत हेया जाइ ॥ ४ ॥ १७२ ।।

(८) जणां को अंग
   भांरी कहैं। त बहु डरौं,हलका कहूँ तो झूठ ।
   मैं का जाणौं राम कू, नैनृं कबहूँ न दीठ ॥ १ ॥
   दीठा है तौ कस कहूँ,कह्यां न को पतियाइ।
   हरि जैसा है तैसा रहौ,तूं हरिषि हरषि गुण गाइ । २ ॥

   (८) ख-रिंचक घट मैं संचरै।
   (१) क-हलवा कहूँ
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