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कबीर-ग्रंथावली

जे मन लागै एक सुं,तौ निरबाल्या जाइ ।
तूरा दुह मुखि बाजणां,न्याइ तमाचे खाइ ।। १२ ।।
कबीर कलिजुग आइ करि,की ये बहुतज मोत ।
जिन दिल बंधी एक सूं,ते सुखु सोवै नचींत ।। १३ ।।
कबीर कूता राम का,मुतिया मेरा नाउं ।
गलै राम की जेवड़ी,जित खैंचै तित जाउं ॥ १४ ।।
तो तो करै त बाहुडौं,दुरि दुरि करै ती जाउं
क्यूं हरि राखै त्यूं रहौं,जो देवै सो खाउँ ।। १५ ।।
मन प्रतीति न प्रेम रस,नां इस तन मैं ढंग।
क्या जाणौँ उस पीव सुं,कैसें रहसी रंग ॥ १६ ॥
उस संम्रथ का दास है,कदं न होइ अकाज ।
पतिव्रता नाँगी रहै,तौ उसही पुरिस कौ लाज ॥ १७ ॥
घरि परमेसुर पांहुणां,सुणीं सनेही दास ।।
षट रस भोजन भगति करि,ज्यूं कदे न छाड़ै पास ॥१८॥२००॥

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(१२) चितावणी कौ अंग

कबीर नौबति आपणीं,दिन दस लेहु बजाइ ।
ए पुर पटन ए गली,बहुरि न देखै आइ ॥ १ ॥
जिनकै नौबति बजाती,मैंगल बँधते बारि ।
एकै हरि के नॉव बिन,गए जन्म सब हारि ॥२॥
ढोल दमामा दुड़बड़ी,सहनाई संगि भेरि ।
औसर चल्या बजाइ करि,है कोई राखै फेरि ॥ ३ ॥
सातौं सबद जु बाजते,घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली पड़े,वैसण लागे काग ।। ४ ॥