पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/११७

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माया कौ अंग

  जांणौं जे हरि को भजों,मो मनि मोटी पास ।
  हरि बिचि घालै अंतरा,माया बड़ी बिसास ॥ ५॥
  कबीर माया मोहनी,मोहे जाण सुजांण ।
  भागां हीं छूटै नहीं,भरि भरि मारै बांण ॥ ६ ॥
  कबीर माया मोहनी,जैसी मीठी खाँड ।
  सतगुर की कृपा भई,नहीं तौ करती भाँड ॥ ७ ।।
  कबीर माया मोहनी,सब जग घाल्या घांणि ।
  कोइ एक जन ऊबरै,जिनि तोड़ी कुल की कांणि ॥ ८॥
  कबीर माया मोहनी,माँगी मिलै न हाथि ।
  मनह उतारी झूठ करि,तब लागी डोलै साथि ॥ ६॥
  माया दासी संत की,ऊँभी देइ असीस ।
  बिलसी अरु लातौं छड़ी,सुमरि सुमरि जगदीस ॥ १० ॥
  माया मुई न मन मुवा,मरि मरि गया सरीर ।
  प्रासा त्रिष्णां नां मुई,यौं कहि गया कबीर ॥ ११ ।।
  प्रासा जीवै जग मरै,लोग मरे मरि जाइ ।
  मोइ मूवे धन संचते,सो उबरे जे खाइ ॥ १२ ॥
  कबीर सो धन संचिये,जो आगैं कूं होइ।
  सीस चढायें पोटली,ले जात न देख्या कोइ॥ १३॥
  त्रीया त्रिष्णां पापणी,तासूं प्रीति न जोड़ि ।
  पैंडीं चढि पाछां पड़ै,लागै मोटी खोड़ि ॥ १४ ॥
  त्रिष्णां सींची ना बुझै,दिन दिन बधती जाइ ।
  जवासा के रूष ज्यूं,घण मेहां कुमिलाइ॥ १५ ॥

  (१) ख०-हरि क्यौं मिलौं।
  (११)ख०-यूं कहै दास कबीर ।
  (१२) ख०-सोई बूड़े जुधन संपते
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