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कामीं नर कौ अंग

 पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा,पंडित भया न कोह।
ऐकै अषिर पीव का,पढ़ै सुपंडित होइ ॥४॥ ३७७॥

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(२०) कामीं नर कौ अंग

 कांमणि काली नागणीं,तीन्यूं लोक मॅझारि ।
रांम सनेही ऊबरे,विषई खाये झारि ॥ १ ॥
कांमणिं मींनीं षांणि की,जे छेड़ों तौ खाइ ।
जे हरि चरणां राचिया,तिनके निकटि न जाइ ।। २ ।।
पर-नारी राता फिरैं,चोरी बिढ़ता खांहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै,अंति समूला जांहिं ॥ ३ ॥
पर-नारी पर-सुंदरी,विरला बंचै कोइ ।
खातां मींठी खाँड सी,अंति कालि बिष होइ ।। ४ ।।
पर-नारी के राचणैं,प्रौगुण है गुण नांहि ।
षार समंद मैं मंछला,केता बहि बहि जांहिं ॥ ५ ॥
पर-नारी कै राचणौं,जिसी ल्हसण की पानि ।
षूंणों'बैसि रषाइए,परगट होइ दिवानि ॥ ६ ॥
नर नारी सब नरक है,जब लग देह सकाम ।
कहै कबीर ते रांम के,जे सुमिरैं निहकाम ।। ७ ।।
ऩारी सेती नेह,बुधि बबेक सबहीं हरै।
कांइ गमावैं देह,कारिज कोई नां सरैं ॥८।।


(२०-४) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं--
जहाँ जलाई सुंदरी,तहां तूं जिनि जाह कबीर।
भसमी है करि जासिसी,सो मैं सवां सरीर५॥
नारी नाहीं माहरी,करै नैन की चोट ।
कोई एक हरिजन अबरै,पारब्रह्म की ओट।६॥
(६) क०-प्रगट होइ निदानि ।