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कबीर-ग्रंथावली

अनल अकांसां घर किया,मधि निरंतर बास।
बसुधा ब्यौम बिरकत रहै,बिनठा हर बिसवास ॥ ३ ॥
बासुरि गमि न रैंणि गमि,नां सुपनैं तरगंम ।
कबीर तहां बिलंबिया,जहां छांहड़ी न घंम ।। ४ ।।
जिहि पैं डै पंडित गए,दुनियां परी बहीर ।
औघट घाटी गुर कही,तिहिं चढ़ि रह्या कबीर ॥ ५ ॥
अगनृकथैं हूँ रह्या,सतगुर के प्रसादि।
चरन कवँल की मौज मैं,रहिस्यूं अंतिरु आदि ।। ६ ।।
हिंदू मूये रांम कहि,मुसलमान खुदाइ ।
कहै कबीर सो जीवता,दुह मैं कदे न जाइ ॥ ७ ॥
दुखिया मूवा दुख कों,सुखिया सुख को झूरि ।
सदा अनंदी रांम के,जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि ॥८॥
कबीर हरदी पीयरी,चूना ऊजल भाइ ।
राम सनेही यू मिले,दून्यू बरन गंवाइ ।। ६ ।।
काबा फिर कासी भया,रांम भया रहीम ।
मोट चून मैदा भया,बैठि कबीरा जीम ।। १० ॥
धरती अरू असमान विचि,दोइ तूंबड़ा अबध ।
षट दरसन संसै पड़या,अरू चौरासी सिध ॥ ११ ॥५३६ ॥

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( ३२ ) सारग्राही को अंग


 पीर रूप हरि नांव है,नीर प्रान ब्यौहार ।
 हंस रूप कोइ साध है,तत का जांनण-हार ॥ १ ।।


( ५ ) ख०-दुनियां गई बहीर।श्रौघट घाटी नियरा ।
( १ ) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
सार-संग्रह सूप ज्यूं,त्यागै फटकि अपार ।
कबीर डरि हरि नांव ले,पसरै नहीं बिकार ॥ २ ॥