बसास का अंग | ५७ |
कबीर संसा दूरि करि,जांमण मरण भरंम ।
पंचतत तत्तहि मिले,सुरति समाना मंन ॥ ४ ॥
ग्रिही तौ च्यंता घंणीं,बैरागी तौ भीष ।
दुहुं कात्यां विचि जीव है,दौ हनैं संतौ सीष ॥ ५ ॥
बैरागी बिरकत भला,गिरहीं चित्त उदार ।
दुहूं चूकां रीता पड़ै,ताकूं वार न पार ॥ ६ ॥
जैसी उपजै पेड सुं,तैसी निबहै ओरि।
पैका पैका जोड़तां,जुड़िसी लाष करोड़ि ॥ ७ ॥
कबीर हरि के नांव सूं,प्रीति रहै इकतार ।
तौ मुख तैं मोती झडै,हीरे अंत न पार ॥८॥
ऐसी बांणी बोलिये,मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै,औरन कौं सुख होइ ॥ ६॥
कोइ एक राखै सावधान,चेतनि पहरै जागि ।
बस्तन बासन सू खिसै,चोर न सकई लागि ॥ १०॥ ५५॥
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( ३५ ) बेसास कौ अंग
जिनि नर हरि जठरांह,उदिकंथै पंड प्रगट कियौ ।
सिरजे श्रवण कर चरन,जीव जीभ मुख तास दीयौ ।
उरध पाव परध सीस,बीस पषां इम रषियौ ।
अंन पान जहां जरै,तहां तैं अनल न चषियो ।।
इहिं भांति भयानक उद्र मैं,उद्र न कबहूं छंछरै ।
कृसन कृपाल कबीर कहि,इम प्रतिपालन क्यों करै ॥ १ ॥
भूखा भूखा क्या करै,कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया,सोई पूरण जोग ।। २ ॥
(८)ख-सुरति रहै इकतार । हीरा अनंत अपार ।