पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
कबीर-ग्रंथावली

(३६) पीव पिछाणन कौ अंग
संपटि मांहिं समाइया,सो साहिब नहीं होइ ।
सकल मांड मैं रमि रह्या,साहिब कहिए सोइ ।। १ ।
रहै निराला मांड थै,सकल मांड ता माहिं।
कबीर सेवै तास कू,दुजा कोई नांहिं ॥ २ ॥
भोलै भूली खसम कै.बहुत किया बिभचार ।
मतगुर गुरू बताइया,पूरिबला भरतार ।। ३ ।।
जाकै मुह माथा नहीं,नहीं रूपक रूप ।
पुहुप बास थै पतला,ऐसा तत अनूप ॥ ४ ॥ ५८४ ॥

________


(३७) विर्कताई कौ अंग
मेरै मन मैं पड़ि गई,ऐसी एक दरार ।
फाटा फटक पषांण ज्यूं,मिल्या न दूजी बार ॥ १ ॥
मन फाटा बाइक बुरै,मिटी सगाई साक ।
जौ परि दूध तिवास का,ऊकटि हूवा पाक ॥ २॥
चंदन भागां गुण करै,जैसे चोली पंन ।
दोइ जन भागा नां मिले,मुकताहल अरु मंन ॥३॥
पासि बिनंठा कपड़ा,कदे सुरांग न होइ। .
कबीर त्याग्या ग्यांन करि,कनक कामनो दोइ ॥४॥


(३६-४) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
चत्र भुजा कै ध्यान में,ब्रिजवासी.सब संत ।
कबीर मगन ता रूप में,जाकै भुजा अनंत ॥५॥
( ३७-३) इसके आगे ख. प्रति में ये दोहे हैं-
मोती भागां श्रीधतां,मन मैं अस्या कबोल ।
बहुत सयानां पचि गया.पढ़ि गइ गाठि गढोल ॥ ४ ॥
मोती पावत बीगस्या,सानौ पायर प्राइ गह।
साजन मेरी नीकल्या,जामि बटाऊं जाइ ॥५॥