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सम्रथाई कौ अंग

चित चेतनि मैं गरक है,चेत्य न देखै मंत ।
कत कत की सालि पाड़िये,गल बल सहर अनंत ।। ५
जाता है सो जाण दे,तरी दसा न जाइ ।
खेवटिया की नाव ज्यूं,घणे मिलैंगे आइ ॥ ६ ॥
नीर पिलावत क्या फिरै,सायर घर घर बारि ।
जो त्रिषावंत होइगा,सो पीवेगा झष मारि ॥ ७ ॥
सत गंठी कोपीन है,साध न मानै संक।
रांम अमलि माता रहै,गिणे इंद्र को रंक ॥ ८॥
दावै दाझण होत है,निरदावै निसंक।
जे नर निरदावै रहैं,ते गिणै इंद्र को रंक ॥ ६ ॥
कबीर सब जग हंढिया,मंदिल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपनां का नहीं,देखे ठोकि बजाइ ॥ १० ॥ ५६४ ॥

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(३८) सम्रथाई कौ अंग

नां कुछ किया न करि सक्या,नां करणें जोग सरीर ।
जे कुछ किया सु हरि किया,ताथैं भया कबीर कबीर ॥ १ ॥
कबीर किया कछू न होत है,अनकीया सब होइ ।
जे किया कुछ होत है,तौ करता औरै कोइ ।। २ ।।
जिसहि न कोई तिसहि तूं,जिस तूं तिस सब कोइ
दरिगह तरी सांईयां,नाम हरू मन होइ ।। ३ ॥

( ५ ) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
बाजण दैह बजंतणी,कुल जंतड़ी न बेड़ि ।
तुझै पराई क्या पड़ी,तूं आपनी निबेड़ि ॥८॥
( १ ) व.प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
साईं सों सब होइगा,बंदे थें कुछ नाहिं ।
राई थैं परबत करै,परबत राई माहिं ॥१॥