खुंदन तौ धरती सहै,बाढ सहै बनराइ ।
कुसबद तौ हरिजन सहै,दूजै सह्या न जाइ ॥ २॥
सीतलता तब जाणियें,समिता रहै समाइ ।
पष छाडै निरपष रहै,सबद न दूष्या जाइ ॥ ३ ॥
कबीर सीतलता भई,पाया ब्रह्म गियान ।
जिहि बैसंदर जग जल्या,सो मेरे उदिक समान ।। ४ ॥ ६१० ॥
(४०) सबद कौ अंग
कबीर सबद सरीर मैं,बिनि गुण बाजै तंति ।
बाहरि भोतरि भरि रह्या,ताथैं छूटि भरंति ॥ १ ॥
सती संतोषी सावधान,सबद भेद सुबिचार ।
सतगुर के प्रसाद थैं,सहज सील मत सार ॥२॥
सतगुर ऐसा चाहिए,जैसा सिकलीगर होइ ।
सबद मसकला फेरि करि,देह द्रपन करै सोइ ॥ ३ ॥
सतगुर साचा सूरिवाँ,सबद जु बाह्या एक ।
लागत ही मैं मिलि गया,पड़या कलेजै छेक ॥ ४ ॥
हरि-रस जे जन बेधिया,सतगुण सीं गणि नांहिं।
लागी चोट सरीर मैं,करक कलेजे माहिं ॥५॥
ज्यूं ज्यूं हरि गुण साँभलूं,त्यूं त्यूं लागै तीर ।
साँठी साँठी झड़ि पड़ी,भलका रह्या सरीर ॥६॥
(३६.२) ख०-काट सहै । साधू सहै।
(३६.४) इसके भागे ख.प्रति में यह दोहा है-
सहज तराजू आंणि करि,सब रस देख्या तोलि ।
सब रस मांहै जीभ रस,जे कोइ जांणै बोलि ॥५॥
(४) यह दोहा ख० प्रति में नहीं है।
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सबद कौ अंग