पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१४९

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जीवन मृतक कौ अंग

पापा मेट्यां हरि मिलै,हरि मेट्यां सब जाइ ।
अकथ कहांणीं प्रेम की,कह्यां न को पत्ययांइ ॥ १० ॥
निगु सांवां बहि जाइगा,जाकै थाघो नहीं कोइ ।
दीन गरीबी बंदिगी,करतां होइ सु होइ ॥ ११ ॥
दीन गरीबी दीन कौं,दूं दर की अभिमान ।
दुंदर दिल बिष सूं भरी,दीन गरीबी राम ॥ १२ ॥
कबीर चेरा संत का,दासनि का परदास ।
कबीर ऐसैं है रह्या,ज्यूं पाऊँ तलि घास ॥ १३ ॥
रोड़ा है रहौ बाट का,तजि पाषंड अभिमान ।
ऐसा जे जन है रहै,ताहि मिलै भगवान ॥ १४ ॥ ६३२ ॥
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(१२)इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं--
   कबीर नवै स आपकों,पर कौं नवै न कोइ ।
   घालि तराजू तोलिये,नवैं स भारी होइ ॥ १४ ॥
   बुरा बुरा सब को कहै,बुरा न दीसै कोइ ।
   जे दिल खोजौं श्रापणीं,तौ मुझ सा बुरा न कोइ ॥ १५ ॥
(१४)इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
   रोड़ा भया तो क्या भया,पंथी को दुख देइ ।
   हरिजन ऐसा चाहिए,जिसी जिंमी की खेह ॥ १८ ॥
   खेह भई तो क्या भया,उड़ि उड़ि लागै अंग।
   हरिजन ऐसा चाहिए,पांणीं जैसा रंग ॥ १६ ॥
   पांणीं भया तो क्या भया,ताता सीता होइ। .
   हरिजन ऐसा चाहिए,जैसा हरि ही होइ ॥२०॥
   हरि भया तो क्या भया,जासौं सब कुछ होइ।
   हरिजन ऐसा चाहिए,हरि भजि निरमल होइ ॥२॥